Homeशिक्षाप्रद कथाएँसन्यासी और चूहा

सन्यासी और चूहा

सन्यासी के किसी राज्य में महिलारोप्य नाम का एक नगर था| उस नगर से थोड़ी दूर पर भगवान शंकर का एक मंदिर बना हुआ था| उस मठ में तामचूड़ का एक सन्यासी निवास करता था| नगर में भिक्षादन कर वह अपनी जीविका चलाया करता था| भोजन से बचे हुए अन्न को वह भिक्षापत्र में रखकर उस पात्र का खूटी पर लटका दिया करता था, इस प्रकार वह निश्चित होकर रात्री में सो जाया करता था प्रात:कल वह उस अन्न को उस मन्दिर में कार्यरत श्रमिको को दे दिया करता था|

“सन्यासी और चूहा” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio

एक दिन मेरे कुटुम्ब के सदस्यों ने मुझको आग्रपूर्वक कहा कि वह सन्यासी इस प्रकार भोजन रखकर सो जाया करता है| वे लोग तो ऊपर चढ़ नहीं पाते किन्तु मेरे लिए वह स्थान अगम्य नहीं है| इसलिए इधर-उधर भटकने की अपेक्षा वही भोजन करना उपयुक्त है| उससे उनका भी काम निकल जाएगा|

उनकी बात सुनकर में तत्काल उस स्थान पर गया| वहां पहुंचकर में कूदकर उस भिक्षापात्र में बढ़ गया| मैंने अपने अनुचरों को भरपेट भोजन कराया और फिर स्वयं भी अपना पेट भरा| इस प्रकार सबकी तृप्ति हो जाने पर मैं पुन: अपने स्थान पर लौट आया|

उस दिन से नित्यप्रति यह रात्रिक्रम चलने लगा| सन्यासी ने अन्न को बचाने के अनेक यत्न किए किन्तु मैं उनको साफ करता रहा| एक दिन उस सन्यासी ने मुझे भयभीत करने का उपाय भी खोज निकाला| कहीं से वह एक बांस का डंडा ले आया| मेरे भय से सोते हुए वह उस भिक्षापात्रको उसे फटे बांस से ठोका करता था और चोट लगने के भय से उस अन्न को बिना खाए ही वहां से भाग आया करता था| इस प्रकार मेरी सारी रात्रि उस सन्यासी के साथ संघर्ष करने में बीत जाया करती थी|

एक दिन उस सन्यासी का एक अन्य मित्र तीर्थयात्रा से लौटता हुआ उसके पास आ गया| उसने उसका हृदय से स्वागत किया और फिर उसका सत्कार भी किया| रात्रि होने पर दोनों कुश की चटाई पर लेटे हुए धर्मचर्या करने लगे| किन्तु मेरे डर के कारण सन्यासी निरन्तर उस फटे बांस से भिक्षापात्र को बजाता रहता था| इसका परिणाम यह होने लगा कि वह अपने साथी सन्यासी की बातों का उत्तर दिय्क से नहीं दे पाया|

इससे उसका अतिथि अप्रसन्नहोकर कहने लगा, ताम्रचूड| मैं देख रहा हूं कि मेरे प्रति तुम्हारी मित्रता से शिथिलता आ गई है यही कारण है तुम मेरी बातों का उचित उत्तर भी नहीं दे रहे हो| मैं समझता हूं कि मुझे यहां से चले जाना चाहिए| किन्तु इस रात्रि में मैं कहां जाऊं? देखता हूं पास कोई अन्य मत होगा| जहां उचित आदर सत्कार न हो वहां टिकना ठीक नहीं| अत: मैं तो अब चलता हूं|

यह सुनकर ताम्रचूड़ को बड़ा दुःख हुआ| वह विनम्रता से कहने लगा, “नहीं, ऐसी बात नहीं है| आपके सामने मेरा परम हितैषी अन्य कौन है| वास्तव में बात यह है कि भिक्षा से बचे अन्न को मैं भिक्षापात्र में रखकर उसे खूटी पर टांग देता हूं| किंतु वहां एक ऐसा दुष्ट चूहा है कि वह ऊंचे से ऊंचे स्थान पर टंगे उस पात्र को भी चट कर जाता है| मैं वह अन्न सेवकों को दे दिया करते थे| जब उनको खाने को नही मिल रहा है तो वे मन्दिर की सफाई नहीं कर रहे है| इन चूहो को डराने के लिए मैं बांस से भिक्षापात्र को ठोकता रहता हूं| बस यही मेरी अनवधानता का कारण है| आप इसको अन्यथा मत समझिए|

‘आप जशनते है कि उसका दिल कहां है?’ मित्र ने पूछा|

“वह तो मुझे मालूम नहीं है|”

‘इतना तो निश्चित जानिए कि उसका दिल किसी खजाने के ऊपर है| धन की गर्मी के कारण ही वह इतना अधिक कूदता है| धन की गर्मी मनुष्य के तेज को बढ़ा देती है यदि उसका धन किसी ने कहा कि कोई शाण्डलीयगोत्र स्त्री अपने कूटे हुए तिली यदि बिना साफ किए हुए तिलों के बदले में बेच रही है तो इसमे कोई न कोई विशेष कारण अवश्य है|’