अपना समाज – शिक्षाप्रद कथा
एक बार एक भूखा-प्यासा कौआ कहीं से उड़ता हुआ आया और एक घर की मुंडेर पर विश्राम करने के लिए बैठ गया|
प्यासा होने की वजह से उसे पानी की तलाश थी| पानी की तलाश में वह इधर-उधर देख ही रहा था कि उसकी नजर कबूतरों के दड़बे पर पड़ी, जिसमें बहुत से कबूतर बैठे| उन कबूतरों का रंग भूरा था| वे देखने में बहुत सुंदर थे और शारीरिक रूप से स्वस्थ भी|
‘मैं काला और भद्दा हूं और ये कबूतर सुन्दर और आकर्षक हैं| काश मैं भी कबूतर होता!’ ऐसा सोचकर उस कौए ने एक योजना बनाई|
वह वहां से उड़ कर किसी दूसरे स्थान पर चला गया| वहां उसने अपने पंख भूरे रंग के रंगे और वापस आकर कबूतरों के साथ रहने लगा| परंतु उसने यह भी निश्चय कर लिया था कि जब तक वह कबूतरों के बीच रहेगा, तब तक वह किसी से कोई बात नहीं करेगा|
वह अपनी इस योजना में सफल रहा| बहुत दिनों तक उसकी असलियत का किसी को भी पता नहीं चला| परंतु एक दिन – कुछ बाहर के कौए आकर मुंडेर पर बैठे और ‘कांव-कांव’ करने लगे| बेचारा कबूतर बना कौआ भी अपनी पैदाइशी आदत से मजबूर होकर ‘कांव-कांव’ का राग अलापने लगा|
सभी कबूतर ऐसी कठोर और तेज आवाज सुनकर चौंक गए| वे समझ गए कि कबूतर बना पक्षी कबूतर नहीं कौआ है| बस फिर क्या था, उन्होंने उस बहुरूपिए कौए को चोंचे मार-मार कर अपने दड़बे से निकाल दिया|
अब इस बहुरूपिए कौए के लिए अपने परिजनों के पास जाने के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं था| मगर जब वह अपने पुराने मित्रों के झुंड में पहुंचा तो उसके बदले हुए हुलिए को देखकर उसे वहां से भी खदेड़ दिया गया|
अब उस बेचारे का यह हाल हो गया कि न ही वह कबूतर बन सका और न ही कौआ बन सका|
शिक्षा: अपने समाज को तुच्छ और दूसरे को श्रेष्ठ समझने वालों का एक दिन यही हश्र होता है|