महाराज परिक्षित्
अभिमन्युकी पत्नी उत्तरा गर्भवती थी| उसके उदरमें पाण्डवोंका एकमात्र वंशधर पल रहा था| अश्वत्थामाने उस गर्भस्थ बालकका विनाश करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया|
उत्तराने भगवान् श्रीकृष्णसे आर्त्त होकर अपने गर्भस्थ शिशुकी रक्षाके लिये प्रार्थना की| भगवान् श्रीकृष्णने सूक्ष्मरूप धारण करके उत्तराके गर्भमें प्रवेश किया| गर्भस्थ शिशुने देखा कि एक प्रचण्ड तेज चारों ओरसे उमड़ता हुआ उसे भस्म करनेके लिये आ रहा है| भगवान् अँगूठेके बराबर ज्योतिर्मयरूपमें अपनी गदाको चारों ओर घुमाते हुए उस प्रचण्ड तेजसे उसकी रक्षा कर रहे हैं| इस प्रकार दस महीनेतक लगातार भगवान् उसकी रक्षा करते रहे| जन्मके समय ब्रह्मास्त्रके प्रभावसे बालक मृत-सा उत्पन्न हुआ| उसी समय भगवान् श्रीकृष्णने प्रसूतिगृहमें आकर बालकको जीवित कर दिया| आगे चलकर यही बालक परीक्षित् के नामसे विख्यात हुआ|
पाण्डवोंके महाप्रयाणके बाद भगवान् के परम भक्त महाराज परीक्षित श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी शिक्षाके अनुसार पृथ्वीका शासन करने लगे| उन्होंने उत्तरकी पुत्री इरावतीसे विवाह किया| उससे उन्हें जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए| उन्होंने कृपाचार्यको आचार्य बनाकर गग्ङातटपर तीन अश्वमेध – यज्ञ किये| उनके राज्यमें प्रजाको किसी प्रकारका कष्ट नहीं था|
एक दिन महाराज परीक्षित् ने एक साँड़ देखा, जिसके तीन पैर टूट गये थे| केवल एक पैर शेष था| उसके पास ही एक गाय आँसू बहाती हुई उदास खड़ी थी| एक काले रंगका शुद्र राजाओंकी भाँति मुकुट धारण किये हाथमें डंडा लेकर उस गाय और बैलको पीट रहा था| जब महाराज परीक्षित् को यह ज्ञात हुआ कि गाय पृथ्वीदेवी है और बैल साक्षात् धर्म है तथा उन्हें पीटनेवाला शूद्ररूपमें कलियुग है, तब उन्होंने उसे मारनेके लिये अपने म्यानसे तत्काल तलवार खींच ली| शूद्ररूपी कलिकाल अपना मुकुट उतारकर महाराज परीक्षित् के चरणोंमें गिर पड़ा| महाराजने उसे क्षमा करते हुए अपने राज्यकी सीमसे बाहर चले जाने के लिये कहा|
कलिने प्रार्थना की – ‘महाराज! आप चक्रवर्ती सम्राट् हैं| मैं भी आपकी ही प्रजा हूँ| अत: मुझे भी रहनेका कोई स्थान देनेकी कृपा करें|’ महाराजने कलिके निवासके लिये जुआ, शराब, स्त्री, हिंसा और स्वर्ण – ये पाँच स्थान निर्धारित कर दिये| एक दिन महाराज परीक्षित् आखेट करते हुए वनमें भटक गये| भूख और प्याससे व्याकुल होकर वे एक ऋषिके आश्रममें पहुँचे| समाधिस्थ ऋषिसे उन्होंने जल माँगा| ऋषिको राजाकी उपस्थितिका ज्ञान नहीं हुआ| राजाने समझा ऋषि जान-बूझकर मेरा अपमान कर रहे हैं| उन्होंने कलियुगसे प्रभावित होनेके कारण ऋषिके गलेमें एक मरा हुआ सर्प डाल दिया और अपनी राजधानी लौट आये| ऋषिपुत्रको जब राजाके इस दुष्कर्मका ज्ञान हुआ तब उसने सातवें दिन तक्षकके काटनेसे राजाकी मृत्यु होनेका शाप दे दिया|
घर पहुँचनेपर महाराज परीक्षित् को ऋषिकुमारे शापकी बात ज्ञात हुई| ये अपने पुत्र जनमेजयको राज्य देकर गग्ङातटपर पहुँचे और आगामी सात दिनोंतक निर्जल व्रतका| निश्चय किया| वहाँपर वामदेव आदि बहुत-से ऋषि आये| उसी समय घूमते हुए शीशुकदेवजी भी वहाँ आ गये| परीक्षित् ने उनका विधिवत् पूजन किया और उनसे अपनी मुक्तिका उपाय पूछा| शुकदेवजीने उन्हें सात दिनोंतक श्रीमभ्दागवतकी पावन कथाका श्रवण कराया| श्रीमभ्दागवतश्रवणसे परीक्षित् का मन पूर्णरूपसे भगवान् में लग गया और सातवें दिन तक्षकके काटनेके बाद भी उनकी मुक्ति हो गयी|