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श्री गुरु हरि कृष्ण जी (3)

कीरतपुर से दिल्ली को जाते हुए गुरु जी अम्बाले के पास पंजोखरे गाँव में ठहरे| पंडित जो उसी गाँव के रहने वाले थे आपसे कहने लगे कि आप छोटी उम्र में ही ईश्वर अवतार और गुरु कहलाते हो| 

पंजोखरे से चलकर और स्थान-स्थान पर संगतो को दर्शन की खुशी देते हुए गुरु हरि कृष्ण जी दिल्ली पहुँच गए| गुरु जी के रहने का प्रबंध राजा जयसिंह ने अपने बंगले में कराया| उसने गुरु जी के दिल्ली पहुँचने की खबर बादशाह को भी दे दी|

राजा जयसिंह की रानी ने जब यह सुना कि बाल गुरु जी शक्तिवान हैं तो उसने आपको भोजन खिलाने के लिए महलों में बुलाया| रानी गुरु जी की शक्ति को परखना चाहती थी| इस मकसद से रानी ने सेविकाओं वाले वस्त्र पहन लिए और उनके बीच में जाकर बैठ गई| अन्तर्यामी गुरु जी जब अपनी माता सहित राजा के महल में गए तो सभी सेविकाओं ने आपको माथा टेका और बैठ गई|

राजा जयसिंह ने जब बादशाह को यह बताया कि गुरु जी ने मेने बंगले में निवास कर लिया है तो दूसरे ही दिन उसने अपने शहिजादे को गुरु जी के पास भेज दिया| शहिजादे ने बादशाह की ओर से गुरु जी को भेंट अर्पण की और माथा टेका| उसने गुरु जी से यह प्रार्थना की कि बादशाह आपके दर्शन करना चाहते हैं| पर गुरु जी आगे से कहने लगे कि हमारा प्रण है कि हम किसी बादशाह के माथे नहीं लगेंगे|

कीरत पुर में गुरु हरि राय जी के दो समय दीवान लगते थे| हजारों श्रद्धालु वहाँ उनके दर्शन के लिए आते और अपनी मनोकामनाएँ पूरी करते| एक दिन गुरु हरि राय जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक पाया और देश परदेश के सारे मसंदो को हुक्मनामे भेज दिये कि अपने संगत के मुखियों को साथ लेकर शीघ्र ही किरत पुर पहुँच जाओ|

मंगल अष्ट गुरु जी ||
हरि किषण भयो अषटम बलबीरा || 
जिन पहुँचे देहली तजिओ सरीरा || 
बाल रूप धरिओ स्वांग रचाइि || 
तब सहिजे तन को छोड सिधाइि || 
इिउ मुगलन सीस परी बहु छारा || 
वै खुद पति सों पहुचे दरबारा || 
(पउड़ी २३ || वार ४१ || भाई गुरदास दूजा ||)

रानियों के महल से वापिस आकर कुछ समय बाद गुरु जी को बुखार हो गया जिससे सबको चिंता हो गई| बुखार के साथ-साथ दूसरे दिन ही गुरु जी को शीतला निकल आई| जब एक दो दिन इलाज करने से बीमारी का फर्क ना पड़ा तो इसे छूत की बीमारी समझकर राजा जयसिंह के बंगले से आपको यमुना नदी के किनारे तिलेखरी में तम्बू कनाते लगाकर भेज दिया|