तेरे इश्क़ नचाईआं कर थईया थईया – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
तेरे इश्क़ नचाईआं कर थईया-थईया| टेक|
तेरे इश्क़ ने डेरा मेरे अन्दर कीता,
भर के ज़हर पिआला मैं तां आपे पीता,
झबदे वहुड़ी वे तबीबा नहीं ते मैं मर गईआं|
छुप गिआ वे सूरज बाहर रह गई लाली,
वे मैं सदके होवां मुड़ देवें जे विरवाली,
पीरा मैं बुल गईआं तेरे नाल न गईआं|
एस इश्क़ दे कोलों मैंनूं हटक न माए,
लाहू जांदड़े बेड़े कोह्ड़ा मोड़ लिआए,
मेरी अकल जुं भुल्ली नाल म्हाणिआं गईआं|
एस इश्क़ दी झंगी विच मोर बुलेंदा,
सानूं क़िबला तो काबा सौह्ना यार दिसेंदा,
सानूं घायल करके फेर ख़बर न लईआं|
बुल्ल्हा, शौह न आंदा मैंनूं इनायत दे बूहे,
जिसने मैंनूं पुआए चोले सावे ते सूहे,
जां मैं मारी ए अड्डी मिल पिआ ए वहीआ|
तेरे इश्क़ ने नचाया मुझे
अध्यात्म प्रेम के अनूठे रंगों का इस काफ़ी में वर्णन किया गया है| बुल्लेशाह कहते हैं, तेरे इश्क़ ने मुझे उन्मत्त की भांति नचाया है| सच्ची हालत तो यह है कि हे प्रियतम, तेरे इश्क़ ने मेरे अन्तर में डेरा जमा लिया है| अब मैं करूं भी तो क्या ? क्योंकि तेरे प्रेम का प्याला, जो अब वियोग में ज़हर का प्याला बन गया है, मैंने ख़ुद ही तो भरकर पिया था| इसलिए मेरे मुर्शिद, फ़ौरन चले आओ वरना मैं मर जाऊंगी|
सूर्य अस्त हो गया है, केवल दिवस-लालिमा ही शेष रह गई, यदि तुम पुन: दिखाई दे दो, तो मैं तुम्हारी ख़ातिर प्राण न्यौछावर करने को तैयार हूं| मुझसे भूल हो गई, मेरे मुर्शिद, क्योंकि मैं तुम्हारे साथ न जा सकी|
ए मेरी मां, मुझे इश्क़ की इस राह से मत रोको| मैं रुकूंगी नहीं| प्रेम के इस तेज़ तूफ़ान में उतरकर जा रही नाव को कौन वापस ला सका है| मेरी मत मारी गई, जो मैं प्रेम नदी के किनारे मल्ल्हों के साथ चली गई|
यह प्रभु-प्रेम कितना आकर्षक और उन्मादपूर्ण है| देखो तो इस प्रेम-वाटिका में मोर बोल रहा है| क़िबला और काबा का दर्शन मुझे अपने यार में ही होता है| मुझे घायल करके वह चला गया और मुझ बीमार का हाल-चाल लेने के लिए भी न आया|
बुल्लेशाह को कृपापूर्वक पति-परमेश्वर मुर्शिद शाह इनायत के द्वार पर ले आया| उसी ने मुझे यह हरा और पीला लिबास पहना दिया| जब मैं एड़ी मारकर नाचने लगी तो मुझे वही मिल गया| तेरे प्रेम ने न जाने मुझे कैसे नाच नचा दिए हैं|