पात्तियां लिखां मैं शाम नूं – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
पत्तियां लिखां मैं शाम नूं मैनूं पिया नज़र न आवे|
आंगन बना डरावना कित विधि रैण विहारे|
पांधे पंडित जगत के मैं पूछ रही आं सारे|
पोथी, वेद क्या दोस है जो उलटे भाग हमारे|
भाइआ वे जोतिषिया, इक सच्ची बात भी कहियो|
जे मैं हीनी भाग दी, तुम चुप न रहियो|
भज सक्का ते भज्ज जावां, सभ तज के करां फ़क़ीरी|
पर दुलड़ी, तिलड़ी, चौलड़ी, है गल विच प्रेम ज़ंजीरी|
नींद गई कित देस नूं, ओह भी बैरन मरी|
मत सुफ़ने विच आन मिले, ओह नींदर केह्ड़ी|
रो रो जिउ वलांदिआं ग़म करदी आं दूणा|
नैनों नीर भी न चल्लण किस कीता टूणा|
साजन तुमरी प्रीत से मुझको हाथ की आया|
छटर सूलां सिर झालिआ पर तेरा पंथ न पाया|
प्रेम नगर चल वस्सिये जित्त्थे वस्से कंत हमारा|
बुल्ल्हिआ शौह तों मंगनी हां जे दे नज़ारा|
सांझ को मैं पातियां लिखती हूं
प्रियतम के वियोग से पागल विरहिणी का व्यथा और मानसिक अवस्था का बड़ा ही स्वाभाविक और मार्मिक चित्रण करने वाली इस काफ़ी में कहा गया है कि मैं हर दिन प्रतीक्षा करते-करते सांझ को अपने प्रिय को पत्र लिखती हूं, लिकिन वह सलोना पिया दिखाई ही नहीं देता| मेरे लिए तो मेरे घर का आंगन भी डरावना बन गया है, भला मैं अकेली ही रात कैसे गुज़ारूं|
पत्र लिखकर हृदय से लगा लेती हूं और आंखों में आंसू भर-भर आते हैं विरह की अग्नि में मैं जल रही हूं और उस अग्नि में मेरा हृदय फुंका जा रहा है| संसार-भर के पंडितों-ज्ञानियों से मैं पूछ रही हूं कि अरे कोई मेरा दोष तो बता दो (प्रेम करना क्या बुरा है) या मेरा भाग्य ही उलटा है (जो प्रिय का दर्शन नहीं हो पा रहा)|
हे ज्योतिषी भाई, तुम मेरी भाग्य-रेखा बताकर सच्ची-सच्ची बात बता दो| अगर मैं सचमुच हीनभाग्य हूं, तो चुप मत लगा जाना, साफ़-साफ़ बता देना|
यदि मैं भाग सकती, तो भाग निकली होती और सब-कुछ त्यागकर फ़क़ीरी वेश अपना लिया होता| लेकिन मैं भाग भी तो नहीं सकती, क्योंकि प्रेम की दुहरी, तिहरी, चौहरी ज़ंजीर मेरे गले में पड़ी है| जो गिरफ़्तार है, वह कैसे भाग सकता है !
नींद भी मेरी बैरिन हो गई है, न जाने कहां चली गई है| ऐसी नींद भी तो नहीं आती, जिससे स्वप्न में ही प्रिय मिल जाए| मैं रो-रोकर अपना जी जला रही हूं और प्रतिदिन दूना ग़म करती हूं| अब तो आंखों के आंसू भी सुख गए हैं, पता नहीं किसने क्या जादू-टोना कर दिया है|
मेरे प्रिय, अब तुम्हीं बताओ कि तुम्हारे साथ प्रेम करके मुझे क्या हाथ लगा? सिर पर कांटों का ताज भी पहन लिया, लेकिन तेरा मार्ग तक प्राप्त नहीं हो सका| अब तो बस यही इच्छा है कि चलकर प्रेमनगर ही बस जाइए, जहां हमारा कन्त रहता है| बुल्लेशाह तो अपने शौह (सद्गुरु) से यही प्रार्थना करता है कि वह प्रिय का दर्शन करा दे|