मैंनूं कौण पछाणे – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
मैंनूं कौण पछाणे,
मैं कुझ गो गई होर नी| टेक|
हादी मैनूं सबक़ पढ़ाया,
ओत्त्थे होर न आया-जाया,
मुतलिक ज़ात जमाल विखाया,
वहदत पाया ज़ोर नी|
अव्वल होके लामकानी,
ज़ाहर बातन दिसदा जानी,
रही न मेरी नाम निशानी,
मिट गया झगड़ा-शोर नी|
प्यारे आप जमाल विखाली,
होइ कलन्दर मस्त मवाली,
हंसा दी हुण वेख के चाली,
भुल गई कागां टोर नी|
अब मुझे कौन पहचाने
प्रभु की साधना में लग जाने और उसका आनन्द पा लेने पर तो कुछ और ही हो गई हूं| अब मुझे कौन पहचानेगा?
गुरु ने मुझे शिक्षा दी कि यह मार्ग ऐसा है कि वहां अन्य कोई आता या जाता नहीं है| उसने मुझे निरपेक्ष सौन्दर्य का दर्शन करवा दिया है और मैं उसी के रंग में ऐसी रंग गई हूं कि अद्वैत ज़ोर दिखाने लगा है|
वह अनादि पुरुष है और जन्म-मरण से परे है, किन्तु वही प्रियतम प्रत्यक्ष होकर सगुण और परोक्ष रूप में निर्गुण दिखाई देता है| प्रिय से तदाकार हो जाने के पश्चात अब मेरा तो नामोनिशान ही नहीं रह गया है| उससे एक रूप होने के बाद सभी कलह-क्लेश मिट गए|
प्रिय ने स्वयं अपना सौन्दर्य दिखाया – उसने स्वयं को क़लन्दर1, मस्त और मवाली2 आदि रूपों में दर्शन दिए| अब हंसों की चाल देख चुकने के बाद स्वभावत: मैं कौओं की चाल भुल गई|