किह करिये – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
अब लगन लगी किह करिये,
नांह जी सकिये नांह ते मरिये| टेक|
तुम सुनो हमारे बैना,
मोहि रात दिने नहीं चैना,
हुण पी बिन पलक न सरिये|
इह अगन बिरोंह दी जारी,
कोई हमरी तपत निवारी,
बिन दरसन कैसे तरिये?
बुल्ल्हा पई मुसीबत भारी,
कोई करो हमारी कारी,
एह अज्जर कैसे जरिये?
क्या करें
प्रिय मिलन का आनन्द उठा लेने पर वियोग की तपिश असहनीय होती है और उसकी जान सांसत मैं पड़ जाती है| कुछ सूझता नहीं, तो विरहिणी कह उठती है कि अब अगन लगी है, क्या करें| न तो हम जी सकते हैं और न मर सकते हैं| यह दुखदाई प्रीत त्यागी भी तो नहीं जा सकती|
अच्छा, अब तुम मेरी सीधी-सादी बात सुनो| रात हो या दिन; मुझे चैन नहीं है और अब प्रिय के बिना पल-भर भी गुज़र नहीं हो पा रही है|
विरहाग्नि मुझे निरन्तर जला रही है| मेरे इस ताप को दूर करने का कोई तो इलाज करो| सच तो यह है कि उसके दर्शन बिना विरह की आग कैसे भी शान्त नहीं होने वाली|
बुल्लेशाह पर भारी संकट आन पड़ा है, तुम हमारा इलाज करो| अब तुम्हीं बताओ कि इस असह्या कष्ट को कैसे सहन करें|