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मेहनत की कमाई

काशी में एक कर्मकांडी पंडित का आश्रम था, जिसके सामने एक जूते गांठने वाला बैठता था। वह जूतों की मरम्मत करते समय कोई न कोई भजन जरूर गाता था। लेकिन पंडित जी का ध्यान कभी उसके भजन की तरफ नहीं गया था। एक बार पंडित जी बीमार पड़ गए और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया।

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उस समय उन्हें वे भजन सुनाई पड़े। उनका मन रोग की तरफ से हट कर भजनों की तरफ चला गया। धीरे-धीरे उन्हें महसूस हुआ कि जूते गांठने वाले के भजन सुनते-सुनते उनका दर्द कम हो रहा है। एक दिन एक शिष्य को भेज कर उन्होंने उसे बुलाया और कहा, ‘भाई तुम तो बहुत अच्छा गाते हो। मेरा रोग बड़े-बड़े वैद्यों के इलाज से ठीक नहीं हो रहा था लेकिन तुम्हारे भजन सुन कर मैं ठीक होने लगा हूं।’ फिर उन्होंने उसे सौ रुपये देते हुए कहा, ‘तुम इसी तरह गाते रहना।’

रुपये पाकर जूते गांठने वाला बहुत खुश हुआ। लेकिन पैसा पाने के बाद से उसका मन कामकाज से हटने लगा। वह भजन गाना भूल गया। दिन-रात यही सोचने लगा कि रुपये को कहां संभालकर रखे। काम में लापरवाही के कारण उसके ग्राहक भी उस पर गुस्सा करने लगे। धीरे-धीरे उसकी दुकानदारी चौपट होने लगी। उधर भजन बंद होने से पंडित जी का ध्यान फिर रोग की तरफ जाने लगा। उनकी हालत फिर बिगड़ने लगी।

एक दिन अचानक जूते गांठने वाला पंडित जी के पास पहुंचकर बोला, ‘आप अपना पैसा रख लीजिए।’ पंडित जी ने पूछा, ‘क्यों, क्या किसी ने कुछ कहा तुमसे?’ जूते गांठने वाला बोला, ‘कहा तो नहीं, लेकिन इस पैसे को अपने पास रखूंगा तो आप की तरह मैं भी बिस्तर पकड़ लूंगा। इसी रुपये ने मेरा जीना हराम कर दिया। मेरा गाना भी छूट गया। काम में मन नहीं लगता, इसलिए कामकाज ठप हो गया। मैं समझ गया कि अपनी मेहनत की कमाई में जो सुख है, वह पराये धन में नहीं है। आपके धन ने तो परमात्मा से भी नाता तुड़वा दिया।’


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