सत्य का टेक
विश्वामित्र के जाने के उपरांत राजा हरिश्चंद्र सोच में डूब गए कि ‘अब मै क्या करूं? इस अनजान नगर में कोई मुझे ॠण भ नहीं दे सकता| अब तो एक ही उपाय है की मै स्वयं को बेच दूं|’
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अपने स्वामी को चिंतित देख शैव्या ने कहा, “सत्य की बड़ी महिमा है| सत्य के बल पर सूर्य उदित और अस्त होता है| सत्य के बल पर यह धरती टिकी हुई है| सत्य ही धर्म है और स्वर्ग है| हजारो अश्वमेध यज्ञ भी सत्य की बराबरी नहीं कर सकते| आपको अपने धर्म का पालन करना चाहिए|”
राजा ने दुखी होकर कहा, “जानता हूँ प्रिये! पर सत्य का पालन मै कैसे करूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है|”
शैव्या ने कहा, “स्वामी मै अपने पुत्र की माँ बन चुकी हूं| इसलिए मेरा पाणिग्रहण सफल हो चूका है| आप मुझे किसी के हाथ बेच दीजिये| उस मूल्य से आप महर्षि विश्वामित्र की दक्षिणा दे दीजिए|”
“नहीं …! “राजा हरिश्चंद्र विचलित होकर रोने लगे, “यह तुमने क्या कह दिया प्रिये! क्या हमारा प्रेम-बंधन समाप्त हो गया है? ऐसा तो सुनना भी मेरे लिए पाप है|”