सिंदबाद जहाजी की पाँचवी यात्रा
पहले वाली स्थितियों में ही बोर होकर मैं एक बार फिर पाँचवी यात्रा पर निकल पड़ा, जो मेरी पहले वाली चारों यात्राओं से भयानक रही| मगर इस बार मैं किसी किराए के जहाज़ पर नही गया बल्कि मैंने अपना ही एक जहाज़ खरीद लिया| इस यात्रा में मैंने अपने कुछ खास सौदागर साथियों को भी अपने साथ ले लिया| हमारा जहाज़ इस बार पूरब की ओर बढ़ा|
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करीब पंद्रह दिनों की यात्रा के बाद हम एक रेगिस्तानी टापू पर पहुँचे| वहाँ हमने कुछ दिन आराम करने का निश्चय किया| इस बार हमारा मकसद सौदागरी के कम और तफरीह अधिक था| वहाँ हमने टापू पर उतरकर सबसे पहले उसका मुआयना करना मुनासिब समझा और सभी लोग एक ओर चल दिए| हम समुंद्र से अधिक दूर नही गए थे कि हमें एक आदमकद झाड़ी में समुंद्री गिद्ध का एक बड़ा सा अंडा रखा दिखाई दिया| यह अंडा उस अंडे से भी काफ़ी बड़ा था जो मैंने अपनी पिछली एक यात्रा में देखा था|
वह अंडा फूट चुका था और उसमें से गिद्ध का बच्चा बाहर आने की कोशिश कर रहा था| हालांकि वह बच्चा था, मगर आपको जानकर हैरानी होगी कि उसका आकार हाथी के बच्चे से भी बड़ा था|
मेरे साथियों ने अंडा तोड़कर उस बच्चे को बाहर निकाला और उनका विचार बन गया कि माँस खाए हुए काफ़ी समय हो गया है तो क्यों न इसी को मारकर पटाया जाए| मैं इस बात के बिल्कुल खिलाफ था, मगर इससे पहले कि मैं उनसे इस मामले पर कोई बहस करता कि उन्होंने उसकी गर्दन पर कुल्हाड़ी चला दी| अब मैं भला क्या कह सकता था, लेकिन मेरे खुदा जानता है कि उस बच्चे की मौत का मुझे बहुत दुख था| उन्होंने उसे भूनने की तैयारी शुरु कर दी|
मैंने उसे चेताया कि इसे यहाँ मत भूनो, इसके माता-पिता आस-पास ही हुए तो खुशबू पाकर यहाँ चले आएँगे और हम लोग उनका मुक़ाबला नही कर पाएँगे| मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी| फिर वही हुआ जिसका अंदेशा था| उन लोगों ने उसे भूनने के बाद अभी खाना शुरू किया ही था कि मुझे आसमान में दो बड़े-बड़े गिद्ध मँडराते दिखाई दिए| उन्हें देखते ही मेरा कलेजा काँप उठा| वह गिद्ध नही, हवाई जहाज़ थे| उनके डैने इतने बड़े-बड़े थे कि जब वे सूरज के सामने आ जाते थे तो टापू पर अँधेरा-सा छा जाता था|
मैंने अपने साथियों से कहा कि वे जल्दी से जहाज़ पर लौट चलें| उन गिद्धों के आकर देखकर शायद वे भी डर गए थे, इसलिए मेरी बात मानकर वे जल्दी-जल्दी जहाज़ की तरफ़ भागे| हम जैसे-तैसे जहाज़ तक पहुँचे और कप्तान का हुक्म दिया है कि वह जहाज़ को जल्दी से जल्दी इस टापू से दूर ले चले| हमने उन गिद्धों को टापू पर उतरते देखा, फिर फौरन ही वे बूरी तरह चीखते हुए आसमान में उड़े| चीखते हुए वे एक बड़े पहाड़ी के पीछे चले गए| मेरे साथियों ने राहत की सांस ली, मगर मुझे राहत नही मिली थि| मेरा अंदाजा था कि गिद्धों को अपने बच्चे की मौत का पता चल चुका है ओर वे अपने साथियों के साथ किसी भी मिनट पर हमला कर सकते थे|
फिर कुछ देर बाद वही हुआ, जिसका अंदेशा था| वह थोड़ी देर बाद में पहाड़ी के पीछे से निकले और आसमान में आकर हमारे जहाज़ की तरफ़ झपड़ पड़े| मैंने देखा कि उनके पंजो में बड़े बड़े भारी पत्थर थे| उड़ते-उड़ते वे हमारे जहाज़ के ऊपर आए और उनमें से एक ने वह बड़ी चट्टान अपने पंजे से छोड़ दी| हम दहशत से चीख पड़े| बिल्कुल ऐसा लगा था जैसे आसमान से कोई बड़ी चट्टान टूटकर हमारे जहाज़ पर गिर रही हो| मगर हमारा कप्तान होशियार था| उसने तेजी से जहाज़ को एक तरफ़ काट दिया| वह चट्टान जहाज़ के बिल्कुल बगल में गिरी और सैकड़ों फुट नीचे बैठती चली गई| पानी में इतना जबरदस्त उछाल आया कि हमारा जहाज़ उलटते-उलटते बचा| जहाँ पत्थर गिरा था, वहाँ कई मीटर गहरा कुआँ-सा बन गया|
तभी दूसरा गिद्ध जहाज़ के ऊपर आ गया और उसने उसी अंदाज में अपने पंजो में फँसी चट्टान छोड़ दी, मगर इस समय चूँकि जहाज़ बुरी तरह डगमगा रहा था, इसलिए कप्तान उसका रुख न बदल सका जिसका नतीजा ये हुआ कि पत्थर ठीक जहाज़ पर आकर गिरा और इसी के साथ जहाज़ टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया| मेरे बहुत से साथी पत्थर की चपेट में आकर कुचले गए| मैं खुद समुंद्र में गिरकर कई मीटर नीचे तक पहुँच गया था| काफ़ी जद्दोजहद करने के बाद जब मैं ऊपर आया तो मैंने देखा कि सब कुछ ख़त्म हो चुका था| जहाज़ के फट्टे और शहतीरें और उसके इर्द-गिर्द बिखरी लाशें ही मुझे दिखाई दी| मैंने जल्दी से आसमान की तरफ़ देखा, अब वहाँ कोई पक्षी नही था| मैंने जल्दी से अपने करीब ही बहते एक लठ्ठे को पकड़ लिया और पैरों से पानी काटते हुए उस मनहूस जगह से दूर जाने लगे|
काफ़ी मेहनत-मशक्कत करके तकरीबन पाँच घंटे के बाद मैं एक हरे-भरे टापू पर पहुँच गया| थोड़ी देर तक तो मैं टापू के किनारे पर ही पड़ा रहा| फिर उठकर मैंने उस टापू का मुआयना करने की सोची| वह टापू बेहद सुंदर था| वहाँ फलों और मेवों के पेड़ थे| तरह-तरह के फल खाकर मैंने अपनी भूख मिटाई| इसी बीच शाम घिरने लगी| खाने-पीने की यहाँ कोई कमी नही थी| अब मैंने सोचा कि सिर छिपाने के लिए कोई मुनासिब सी जगह तलाश ली जाए| यही सोचकर मैं आगे चल पड़ा|
अभी मैं थोड़ी दूर ही पहुँचा था कि मुझे एक झाड़ी के पास एक बूढ़ा और बीमार आदमी बैठा दिखाई दिया| मेरे ख्याल से उसकी उम्र सौ साल से भी ज्यादा होगी, देखने से लगता था कि वह चलने-फिरने से भी लाचार है| मैं उसके करीब जा पहुँचा, मगर न ही तो उसने मेरी तरफ़ देखने की कोशिश की और न ही कुछ सुनाई पड़ने की हरकत ज़ाहिर की| मैंने सोचा कि शायद वह अंधा और बहरा है| जब मैं उसके और करीब पहुँचा तो वह आँखें मिचमिचाने लगा| मैंने झुककर उसके कान के पास मुँह करके पूछा, “बाबा! तुम कौन हो? क्या यहाँ अकेले हो? कहाँ जाना है तुम्हें? क्या मैं तुम्हारी कोई मदद करुँ?”
पता नही वह मेरी भाषा समझा या नही, मगर हाथ के इशारे से उसने मुझे बताया कि वह वही पास में बह रहे एक नाले के पार जाना चाहता था| मुझे उस बूढ़े पर तरस तो आ ही गया था, इसलिए मैंने उसे उठाकर कंधे पर बैठा लिया| वह फूल जैसा हल्का फुल्का बूढ़ा था| मैं उसे लेकर चला तो लगा जैसे मेरे कंधे पर कुछ है ही नहीं| खैर, मैं उसे लेकर उस नाले के पार आ गया| फिर एक दरख्त के नीचे आकर मैंने उसे उतारने की कोशिश की तो यह देख कर मेरी हैरानी की हद ना रही की वह बूढ़ा तो जैसे मेरे कंधे से चिपक गया था| उसने उतरने की कोई मंशा ज़ाहिर नही की बल्कि अपने दोनों घुटनों से मेरी गर्दन दबोच ली|
“अरे बाबा…|” मेरा दम घुटने लगा तो दोनों हाथों से जोर लगा कर मैंने उसके घुटने खोलने की कोशिश की| मगर उसने उन्हें और अधिक कस दिया| पता नही कैसे उस फूल से बुढ्ढ़े में इतनी ताकत आ गई थी|
मैं उसे अपने कंधे से उतारने की हर मुमकिन कोशिश करके हार गया, मगर मैं अपनी मंशा में कामयाब न हो सका| इस नई मुसीबत के सिर आ जाने से मैं घबरा गया| फिर अचानक मेरी नज़र उसके पैरों पर पड़ी और यह देखकर मुझे पसीना आ गया| उसके पाँव बड़े पतले-पतले और जानवर जैसे थे| उसकी चमड़ी पर मोटे-मोटे रुएँ थे और पैरों में पंजे की जगह सिर्फ़ मोटी-मोटी उंगलियाँ थी जिसके नाखून बेहद बड़े और पैने थे| बिल्कुल किसी बाज़ के पैरों की तरह|
मैं बुरी तरह घबरा गया और उसे कंधे पर से फेंकने की कोशिश की, मगर वह बेहद शक्तिशाली था| मुझे समझते देर नही लगी कि मैं किसी बला के चुंगल में फँस गया हूँ| उसने अपने घुटनों से इतनी शक्ति से मेरा गला दबा रखा था कि मेरी आँखें बाहर को उबलने लगी और दम घुटने लगा|
फिर एकाएक ही उसकी और मेरी धींगा-मुश्ती-सी होने लगी| उसने मेरे कंधे पर बैठे-बैठे ही ऐसे दावँ मारे की मुझे धरती पर गिरा दिया| वह मुझे मार ही डालता, मगर मैंने उससे समझौता करना ही मुनासिब समझा और उससे पूछा कि वह चाहता क्या है| उसने मुझे इशारे से ही बताया की उसे अभी और आगे जाना है| मैंने उठकर आगे बढ़ने में ही भलाई समझी|
उसने मेरे सिर को थपककर इशारा किया कि मैं उसके इच्छित एक वृक्ष के नीचे रुकँ| मैं रुक गया तो वह मेरी गर्दन पर बैठे-बैठे ही पेड़ पर से फल तोड़कर खाने लगा| बस, इसी तरह रात-दिन, सुबहो-शाम वह मेरे कंधे पर सवार रहता| उसका मन होता तो रुकने को कहता, मन होता तो चलता| मैं उसके इशारों का गुलाम होकर रह गया था|
एक दिन एक स्थान पर मुझे कुछ तुम्बे पड़े दिखाई दिए| मैंने एक तुम्बा उठा लिया और अंगूर की बेल से ढेरों अंगूर तोड़कर मुठ्ठी से रस निकालकर उस तुम्बे में भर दिया| दरअसल, मुझे शराब पिए काफ़ी अरसा गुज़र गया था तो मैंने सोचा कि क्यों न अंगूर की शराब बनाई जाए| निदान ये कि तुम्बे को अंगूरो के रस से भरकर मैंने उसे एक जगह धरती में गाड़ दिया| आज बूढ़े के कहने पर काफ़ी दिनों बाद मैं फिर उसी तरफ़ जा रहा था जिधर मैंने वह तुम्बा गाड़ा था| मौका मिलने पर मैंने उसे खोदकर निकाला तो पता चला कि सड़ जाने के कारण रस की शराब बन चुकी है| अचानक मेरे दिमाग में आया कि क्यों न इस बला को भी यह शराब पिलाकर गैर होश किया जाए| हो सकता है, इस तरह मैं इस पर काबू पा लूँ|
पहले थोड़ी सी शराब मैंने स्वयं पी| वह बड़ी ही उम्दा किस्म की शराब बनी थी| कुछ देर बाद मुझे हल्का नशा हो गया और मेरी सारी थकान दूर हो गई| उसके बाद मैंने वह तुम्बा पूरा का पूरा बूढ़े की तरफ़ बढ़ा दिया| बूढ़े ने मेरे कंधे पर बैठे-बैठे ही तुम्बा खाली कर दिया| उसने बड़े खुश होकर अंगूर की शराब पी| खाली तुम्बा एक तरफ़ फेंककर उसे न जाने क्या सूझा कि वह मेरे कंधे पर बैठा-बैठा ही मटकने लगा| उस पर तेजी से नशा चढ़ने लगा था| वह अज़ीब-अज़ीब सी हरकतें करने लगा| ऐसा करते समय उसकी टाँगों की पकड़ कर मेरी गर्दन पर ढीली हो गई| बस, यही मौका था मेरे पास| मैंने उसकी पकड़ ढीली होते ही उसे जमीन पर पटक दिया और दौड़कर एक पत्थर उठा लिया| और इससे पहले कि वह संभाल पाता, मैंने वह बड़ा पत्थर उठाकर उसके सिर पर दे मारा|
बूढ़ा वही देख हो गया| बस, उसके मरते ही मेरी खुशी का ठिकाना न रहा| अब मैं आज़ाद था| उससे आज़ाद होकर सबसे पहले तो मैं एक झरने पर जाकर नहाया| मैं पिछले कितने ही दिनों से नहाया नही था| फिर बैठकर नमाज अदा की, उसके बाद फल वगैरह तोड़कर खाए| फिर कुछ देर एक पेड़ की ठंडी छाँव में बैठकर आराम किया| जब मैं पूरी तरह ताजा हो गया तो उठकर समुंद्र के किनारे की तरफ़ चल दिया| मैंने सोचा था कि यदि कोई ज़हाज आता-जाता दिखाई दिया तो मैं उससे मदद माँग लूँगा| मगर जैसे ही मैं समुंद्र के किनारे पहुँचा तो मैंने देखा कि एक ज़हाज वहाँ एक पहाड़ी के पहलू में पहले से ही खड़ा है और उस ज़हाज के यात्री पहाड़ी से फूट रहे झरने से पीने का पानी मश्कों में भर रहे है|
मैं तेजी से उन लोगों की तरफ़ बढ़ने लगा| मेरी बढ़ी हुई दाढ़ी, उलझे बाल और फटे-मैले कपड़े देखकर वे लोग डर गए और पहाड़ी से कूद-कूदकर अपने ज़हाज की तरफ़ भागने लगे| मैं उन्हें पुकारता हुआ उनके पीछे भागा तो मुझे कोई बला जानकार वे भी चीखने लगे| मैं अपने स्थान पर रुक गया और बोला, “अरे भाई ठहर जाओ, मुझसे डरो मत, मैं भी तुम्हारी ही तरह एक सौदागर हूँ|”
मेरी बात सुनकर वे रुक गए| मैं उनके करीब पहुँचा और अपना परिचय देकर उन्हें बताया किस मुसीबत के बाद इस द्वीप पर पहुँचा हूँ| तब उनमें से एक ज़हाजी ने कहा, “सिंदबाद! तुम बड़े नसीब वाले हो जो उस बूढ़े के चंगुल से बच गए| हम उस बूढ़े के विषय में जानते है| वह इसी प्रकार अपने शिकार को थका-थकाकर मार डालता था और फिर खा जाता था| इस टापू पर तो भूलकर भी कोई नही रुकता| यहाँ का मीठा पानी लेने के लिए लोग ज़रुर रुकते है, मगर इस किनारे पर से ही वापस लौट जाते है| खैर, अब तुम क्या चाहते हो?”
“भाई! मैं यह चाहता हूँ कि तुम मुझे अपने साथ ले चलो और किसी मुनासिब जगह पर छोड़ दो जहाँ से मैं बगदाद जा सकूँ|” उन्होंने मेरी फरियाद मान ली और उस ज़हाज पर चढ़कर मैं उनके साथ चल दिया| यात्रा के दौरान एक बड़े व्यापारी से मेरी गहरी मित्रता हो गई| कुछ दिनों बाद हम एक शहर के बंदरगाह पर पहुँचे| वहाँ से सभी सौदागर एक सराय में आकर ठहर गए| खा-पीकर वह सभी व्यापारी कुछ बड़े-बड़े बोरे लेकर चलने लगे तो उस व्यापारी ने एक बोरा मुझे भी देकर कहा, “लो, तुम भी इनके साथ चले जाओ| ये लोग नारियल बीनने जा रहे है मगर तुम इनके साथ ही रहना| अगर भटक गए तो शायद कभी अपने घर न पहुँच पाओ|”
बोरा और खाने-पीने की कुछ चीजें लेकर मैं उनके साथ चल दिया| थोड़ी देर में ही हम लोग एक बड़े जंगल में पहुँच गए, जो समुंद्र के किनारे पर ही था| वहाँ हज़ारों बंदर थे, जो हमें देखते ही बुरी तरह चीखते हुए आसमान छूते नारियल के पेड़ों पर चढ़ गए| चूंकि हम सबके पास हथियार भी थे, इसलिए बंदर हमारे करीब नही आ पाए थे| जब वे सभी बंदर डरकर ऊँचे पेड़ों पर चढ़ गए तो मेरे साथी पत्थर उठा-उठाकर उन्हें मारने लगे| मुझे यह सब बड़ा अजीब लगा और मैं सोचने लगा कि ये नारियल बीनने आए है या बंदरों को मारने? मगर जल्दी ही मुझे अपने सवाल का जवाब मिल गया|
मेरे साथियों के पत्थरों के जवाब में बंदर ऊपर से नारियल तोड़-तोड़कर फेंकने लगे| हमने बहुत से नारियल बटोरे, फिर वापस सराय लौट आए ज़हाज भी आगे चल दिया| एक अन्य मुल्क में जाकर हमने वे नारियल बेचे और खूब धन कमाया| व्यापारियों के सरदार ने मेरे द्वारा बटोरे गए नारियल बेचने का हक मुझे ही दिया था और यह भी कह दिया था कि उस पैसे का मैं ही अधिकारी हूँ| उन्होंने मुझसे ये भी कहा कि इसी तरह तुम नारियल का व्यापार करो तो कुछ दिनों में तुम्हारे पास इतना धन इकट्ठा हो जाएगा कि आसानी से अपने देश वापस जा सको|
मैंने उनकी बात मानी ओर कई दिन तक इसी तरह नारियल बेचता रहा है| इस तरह मेरे पास पर्याप्त धन इकट्ठा हो गया| इसके कुछ दिन बाद उधर एक ज़हाज आया जो उधर ही जा रहा था, जिधर मैं जाना चाहता था| मैं अपनी नारियल की खेप लेकर उस पर सवार हो गया| वहाँ से ज़हाज उस द्वीप में आया, जहाँ काली मिर्च पैदा होती है| वहाँ से हम लोग उस टापू में गए, जहाँ चंदन और आबनूस के पेड़ बहुतायत में है| वहाँ के निवासी न तो मदिरा पान करते है, न अन्य किसी प्रकार का कुकर्म करते है| उन दोनों द्वीपों में मैंने नारियल बेचकर काली मिर्च और चंदन खरीदा| इसके अतिरिक्त कई व्यापारियों की सलाह से मैं समुद्र से मोती निकलवाने की योजना में उनका भागीदार बन गया| हम लोगों ने दूसरे गोताखोरों की अपेक्षा कही अधिक मोती निकाले| मेरे मोती अन्य मोतियों से बड़े और सुडौल भी थे|
इसके बाद में एक ज़हाज पर सवार होकर बसरा बंदरगाह पर आ गया| वहाँ पर मैंने काली मिर्च, चंदन और मोतियोँ को बेचा तो मेरी आशा से कही अधिक लाभ हुआ| मैंने उनका दसवाँ भाग दान में दे दिया और अपनी सुख-सुविधाओं की वस्तुएँ खरीदकर बगदाद में अपने घर पर आकर आराम से रहने लगा|
पाँचवी यात्रा का वृतांत सुनाकर सिंदबाद ने हिंदबाद को फिर चार सौ दिनारें दी और उसे तथा अन्य मित्रों को विदा करके अगले दिन नई यात्रा का वृतांत सुनने के लिए आमंत्रित किया|
अगले दिन सब आए और खाना-पीना होने के बाद सिंदबाद ने अपनी छठी यात्रा का वृतांत सुनाना आरंभ किया|