राम प्रेम के बिना सब बिकार है – भक्त तुलसीदास जी दोहावली
रसना सांपिनी बदन बिल जे न जपहिं हरिनाम|
तुलसी प्रेम न राम सों ताहि बिधाता बाम|
प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रीहरि का नाम नहीं जपते, उनकी जीभ सर्पिणी के समान केवल विषय-चर्चारूपी विष उगलने वाली और मुख उसके बिल के समान है| जिनको राम में प्रीति नहीं है, उनके लिए तो विधाता बाम ही है अर्थात उनका भाग्य फूटा ही है|
हिय फाटहुं फूटहुं नयन जरउ सो तन केहि काम|
द्रवहिं स्रवहीं पुलकई नहीं तुलसी सुमिरत राम||
प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीहरि का स्मरण करके जो ह्रदय पिघल नहीं जाते वे ह्रदय फट जाएं, जिन नेत्रों से प्रेम के आंसू नहीं बहते वे नेत्र फुट जाएं और जिस शरीर में रोमांच नहीं होता वह शरीर जल जाए अर्थात ऐसे निकम्मे अंग किस काम के|
रामहि सुमिरत रन भिरत देत परत गुरु पायं|
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु ते जग जीवत जायं||
प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीरामचंद्रजी का ध्यान होने के समय, धर्मयुद्ध में शत्रु से लड़ने के समय, दान देते समय और गुरु के चरणों में प्रणाम करते समय, जिनका शरीर विशेष हर्ष के कारण रोमांचिक नहीं होता, वे सब जगत में व्यर्थ ही जीते हैं|
ह्रदय सो कुलिस समान जो न द्रवइ हरिगुन सुनत|
कर न राम गुन गान जीह सो दादुर जीह सम||
प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु के गुणों को सुनकर जो ह्रदय द्रवित नहीं होता, वह ह्रदय पत्थर के समान कठोर और जो जीभ प्रभु के नाम का गुणगान नहीं करती, वह जीभ मेढक की जीभ के समान बेकार ही टर्र-टर्र करने वाली है|
स्रवे न सलिल सनेहु तुलसी सुनि रघुबीर जस|
ते नयना जनि देहु राम करहु बरु आंधरो||
तुलसीदासजी कहते हैं कि हे रघुबीरजी! मुझे भले ही अंधा बना दीजिए, परंतु ऐसी आंखें मत दीजिए जिनसे प्रभु का यश सुनते ही प्रेम के आंसू न बहने लगें|
रहैं न जल भरि पूरि राम सुजस सुनि रावरो|
तिन आंखिन में धूनि भरि भरि मूठी मेलिए||
प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि हे भगवान श्रीरामचंद्रजी! आपका सुयश सुनते ही जो आंखें प्रेम जल से पूरी तरह भर न जाएं, उन आंखों में तो मुट्ठियां भर-भरकर धूल झोंकनी चाहिए|