रीछ की समझदारी – शिक्षाप्रद कथा
वह शिकार खेलने गया था| लम्बी मारकी बंदूक थी और कन्धे पर कारतूसों की पेटी पड़ी थी| सामने ऊँचा पर्वत दूर तक चला गया था| पर्वत से लगा हुआ खड्डा था, कई हजार फीट गहरा| पतली-सी पगडंडी पर्वत के बीच से खड्डे के उस पारतक जाती थी| उस पार जंगली बेर हैं और इस समय खूब पके हैं| वह जानता था कि रीछ बेर खाने जाते होंगे|
उसने देखा, एक छोटा रीछ इस पारसे पगडंडी पर होकर उस पार जा रहा है| गोली मारने से रीछ खड्डे में गिर पड़ेगा| कोई लाभ न देखकर वह चुपचाप खड़ा रहा| दूरबीन लगाते ही उसने देखा कि उस पारसे उसी पगडंडी पर दूसरा बड़ा रीछ इस पारको आ रहा है|
‘दोनों लड़ेंगे और खड्डे में गिरकर मर जायँगे|’ वह अपने-आप बड़बड़ाया| पगडंडी इतनी पतली थी कि उस परसे न तो पीछे लौटना सम्भव था और न दो-एक साथ निकल सकते थे| वह गौरसे देखने लगा|
‘एक को गोली मार दूँ, लेकिन दूसरा चौंक जायगा और चौंकते ही वह भी गिर जायगा|’ देखने के सिवा कोई रास्ता नहीं|
दोनों रीछ आमने-सामने हुए| पता नहीं, क्या वाद-विवाद करने लगे अपनी भाषा में| पाँच मिनट में ही उनका भलभलाना बंद हो गया और शिकारी ने देखा कि बड़ा रीछ चुपचाप जैसे था, वैसे ही बैठ गया| छोटा उसके ऊपर चढ़कर आगे निकल गया और तब बड़ा उठ खड़ा हुआ|
‘ओह, पशु इतना समझदार होता है और मुर्ख मनुष्य आपस में लड़ते हैं|’ शिकारी बिना गोली चलाये लौट आया| उसने शिकार करना छोड़ दिया|
‘सठ सुधरहिं सतसंगति पाई|’