निर्धन का पैसा
किसी नगर में गंगा के किनारे बैठकर एक भिखारी भीख मांगा करता था| उसके हाथ में एक कटोरा रहता था, जिसे जो देना होता था, वह कटोरे में डाल देता था|
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वर्षों से भिखारी के जीवन का यही क्रम चलता आ रहा था| जाड़ा हो या गर्मी, वर्षा हो या वसंत, वह बड़े तड़के वहां आकर बैठ जाता और जब शाम का अंधेरा होने लगता तो वह उठकर चला जाता| कभी किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि वह कहां से आता है और कहां जाता है|
लेकिन वह भिखारी दूसरे भिखारियों की तरह गिड़गिड़ाता नहीं था, दीनता नहीं दिखाता था कोई सामने आता, तो कटोरा आगे बढ़ा देता, मुंह से कुछ भी याचना नहीं करता था|
एक दिन की बात है कि एक आदमी उधर आया| उसकी चाल-ढाल, कपड़े-लत्ते, भारी-भरकम शरीर और गले में पड़ी सोने की जंजीर से उसने समझ लिया कि वह कोई पैसे वाला आदमी है, उसने कटोरा आगे बढ़ा दिया|
उस आदमी ने भिखारी की ओर देखकर ऐसा मुंह बनाया जैसे कोई कड़वी चीज मुंह में आ गई हो, फिर जेब में हाथ डालकर बड़े अनमने भाव से दस पैसे का सिक्का निकाला और भिखारी के सामने जमीन पर फेंककर आगे बढ़ गया|
वह भिखारी ये हरकतें देख रहा था| उसने आव देखा न ताव, सिक्के को उठाकर उस आदमी की ओर फेंकते हुए बोला – “यह ले अपनी दौलत| मुझे तुझ जैसे गरीब का पैसा नहीं चाहिए|”
उस आदमी के पैर ठिठक गए| उसने एक क्षण भिखारी की आंखों को देखा, उसकी भाव-भंगिमा को देखा| तभी उसे एक धर्म-ग्रंथ में पढ़ी बात याद आ गई, जिस दान के साथ दानदाता अपने को नहीं देता, वह दान व्यर्थ है और जिसके पास दिल नहीं है वह करोड़ों की संपत्ति होते हुए भी सबसे गरीब है|