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अपने अंतिम समय को नजदीक अनुभव करके श्री गुरु अमरदास जी (Shri Guru Amardas Ji) ने गुरुगद्दी का तिलक श्री रामदास जी (Shri Guru Ramdas Ji) को देकर सब संगत को आप जी ने उनके चरणी लगाया| इसके पश्चात् परिवार व सिखों को हुक्म मानने का उपदेश दिया जो बाबा सुन्दर जी, बाबा नन्द के पोत्र ने इसका वर्णन करके श्री गुरु अर्जुन देव जी को सुनाया-

श्री गुरु अंगद देव जी (Shri Guru Angad Dev Ji) के पास आकर जब कुछ दिन बीत गए तो आप ने भाई बुड्डा जी से आज्ञा लेकर और सिक्खों की तरह गुरुघर की सेवा में लग गए| आप सुबह उठकर गुरु जी के लिए जल की गागरे लाकर स्नान कराते| फिर कपड़े धोकर एकांत में बैठकर गुरु जी का ध्यान करते|

श्री गुरु अमरदास जी (Shri Guru Amardas Ji) तेज भाज भल्ले क्षत्री के घर माता सुलखणी जी के उदर से वैशाख सुदी १४ संवत १५३६ को गाँव बासरके परगना झबाल में में पैदा हुए| 

श्री गुरु अंगद साहिब जी की सुपुत्री बीबी अमरो श्री अमरदास जी के भतीजे से विवाहित थी| आप ने बीबी अमरो जी को कहा की पुत्री मुझे अपने पिता गुरु के पास ले चलो| मैं उनके दर्शन करके अपना जीवन सफल करना चाहता हूँ| पिता समान वृद्ध श्री अमरदास जी की बात को सुनकर बीबी जी अपने घर वालो से आज्ञा लेकर आप को गाड़ी में बिठाकर खडूर साहिब ले गई|

खडूर के चौधरी को मिरगी का रोग था| वह शराब का बहुत सेवन करता था| एक दिन गुरु जी के पास आकर विनती करने लगा कि आप तो सब रोगियों का रोग दूर कर देते हो, आप मुझे भी ठीक कर दो| लोगों की बातों पर मुझे विश्वास तब आएगा जब मेरा मिरगी का रोग दूर हो जायेगा| गुरु जी कहने लगे चौधरी!

गुरु अंगद देव जी (Shri Guru Angad Dev Ji) ने वचन किया – सिख संगत जी! अब हम अपना शरीर त्यागकर बैकुंठ को जा रहे हैं| हमारे पश्चात आप सब ने वाहेगुरु का जाप और कीर्तन करना है| रोना और शोक नहीं करना, लंगर जारी रखना| हमारे शरीर का संस्कार उस स्थान पर करना जहाँ जुलाहे के खूंटे से टकरा कर श्री अमरदास जी गिर पड़े थे|

सिखों को श्री लहिणा जी की योग्यता दिखाने के लिए तथा दोनों साहिबजादो, भाई बुड्डा जी आदि और सिख प्रेमियों की परीक्षा के लिए आप ने कई कौतक रचे, जिनमे से कुछ का वर्णन इस प्रकार है:

श्री गुरु अंगद देव जी (Shri Guru Angad Dev Ji) फेरु मल जी तरेहण क्षत्रि के घर माता दया कौर जी की पवित्र कोख से मत्ते की सराए परगना मुक्तसर में वैशाख सुदी इकादशी सोमवार संवत १५६१ को अवतरित हुए| आपके बचपन का नाम लहिणा जी था| गुरु नानक देव जी को अपने सेवा भाव से प्रसन्न करके आप गुरु अंगद देव जी के नाम से पहचाने जाने लगे|

गुरु जी एक नगर के बाहर वृक्ष के नीचे जा बैठे| संत रुप गुरु जी का आगमन सुनकर वहां का राजा आपके दर्शन करने आया|

श्री गुरु नानक देव जी दीपालपुर शहर से बाहर एक कुटिया देखकर उस के पास जा बैठे| उस कुटिया में एक कोहड़ी रहता था| उसका यह हाल सम्बन्धियों ने किया था| उस कोहड़ी ने गुरु जी से कहा कि आप मेरे से दूर ही रहो, मुझे कुष्ट रोग है, गुरु जी कुटिया के पास पीपल के नीचे डेरा डालकर बैठ गए|