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नगर के बाहर बने शिव मंदिर में ताम्रचूड़ नामक एक सन्यासी रहता था, जो उस नगर में भिक्षा माँगकर बड़े सुख से अपना जीवन व्यतीत कर रहा था| वह अपने खाने-पीने से बचे अन्न-धान्य को एक भिक्षा पात्र में रख देता और फिर उस पात्र को रात्रि में खूंटी पर लटकाकर निश्चिंतता से सो जाया करता था| प्रातकाल ताम्रचूड़ स्नान-पूजादि से निवृत होकर उस अन्न-धान्य आदि को मंदिर के बाहर बैठनेवाले भिखारियों में बाँट देता था|

गंगा के किनारे खड़ी नाव में सभी यात्री बैठ चुके थे। बगल में ही युवक खड़ा था। नाविक ने उसे बुलाया, पर चूंकि उसके पास नाविक को उतराई देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वह नाव में नहीं बैठा और तैरकर घर पहुंचा।