अध्याय 156
1 [य]
सत्यं धर्मे परशंसन्ति विप्रर्षिपितृदेवताः
सत्यम इच्छाम्य अहं शरॊतुं तन मे बरूहि पितामह
1 [य]
सत्यं धर्मे परशंसन्ति विप्रर्षिपितृदेवताः
सत्यम इच्छाम्य अहं शरॊतुं तन मे बरूहि पितामह
एक राक्षस था| उसने एक आदमी को अपनी चाकरी में रखा आदमी बड़ा भला था, राक्षस जो भी कहता वह फौरन कर देता, लेकिन राक्षस तो राक्षस ठहरा! उसे इतने से ही संतोष न होता| वह बात-बात पर आंखें फाड़कर कहता – “काम में जरा-भी ढील हुई तो मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगा|”
किसी नगर में एक आदमी रहता था| वह पढ़ा-लिखा और चतुर था| एक बार उसमें धन कमाने की लालसा पैदा हुई| उसके लिए उसने प्रयत्न आरंभ किया| देखते-देखते उसके पास लाखों की संपदा हो गई, पर उसके पास ज्यों-ज्यों पैसा आता गया, उसका लोभ बढ़ता गया| साथ ही धन का ढेर भी ऊंचा होता गया|
Vaisampayana said, “The royal son of Pandu then addressed Narada, saying,’O holy one, I desire to hear of the birth of the child whose excretawere gold.’ Thus addressed by king Yudhishthira the just, the sage Naradabegan to narrate to him all that had occurred in connection with thatchild of golden excreta.
“Markandeya said, ‘Beholding both the brothers Rama and Lakshmanaprostrate on the ground, the son of Ravana tied them in a net-work ofthose arrows of his which he had obtained as boons.
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं…
कोई वस्तु नहीं ऐसी, जिसे सेवा में लाऊं मैं…
“Yudhishthira said, ‘Tell me, O sire, of that high yoga by which, OBharata, I may obtain Emancipation, O foremost of speakers, I desire toknow everything about that yoga truly.’
Sanjaya said, “Then those kings, excited with rage, beholding Phalguni inbattle, surrounded him on all sides with many thousands of cars.