दुनी चंद को उपदेश – साखी श्री गुरु नानक देव जी
श्री गुरु नानक देव जी ऐमनाबाद से लाहौर आ गए| उस समय श्राद्धों के दिन थे| शाहूकार दूनी चन्द बहुत से ब्राह्मणों व सन्तों को भोजन करा रहा था| गुरु जी को भी महान सन्त समझकर भोजन खिलाने अपने घर ले गया|
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गुरु जी ने पूछा, “आज आपने अपने घर यज्ञ आयोजित किया है?” उस ने कहा, “आज मेरे पिता का श्राद्ध है जिसके कारण मैंने यह सब कुछ किया है|” श्री गुरु नानक देव जी कहने लगे, आप के पिता तीन दिन से भेड़िये के रूप में जंगल से बाहर भूखे बैठे है, उनको आप का यह पुण्य दान, भोजन कुछ नहीं पहुंचा| दुनीचंद ने गुरु जी से पूछा, महाराज! मेरा पिता भेड़िये की योनि में क्यों पड़े वह तो धर्मात्मा थे| गुरु जी ने बताया कि अन्त समय आपके पिता को मांस खाने की इच्छा पैदा हुई| इसलिए मरकर उन्हें भेड़िये की योनि प्राप्त हुई| जब तक वह अपनी इस अंतिम इच्छा को भोग नहीं लेंगे तब तक उसकी यही गति बनी रहेगी| मनुष्य के अपने किए हुए कर्म ही आगे आते है, दूसरों का किया किसी को कुछ नहीं मिलता|
दुनीचन्द ने गुरु जी के चरण पकड़ लिए व सिक्खी धारण कर ली| सत्य का संग करने के लिए अपने ही घर में धर्मशाला बना ली जो कि दिल्ली दरवाजे के अन्दर चौहरा मुफती बाकर के नाम से प्रसिद्ध है|
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