श्रीभरत – रामायण
श्रीभरतजीका चरित्र समुद्रकी भाँति अगाध है, बुद्धिकी सीमासे परे है| लोक-आदर्शका ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है| भ्रातृप्रेमकी तो ये सजीव मूर्ति थे|
श्रीभरतजीका चरित्र समुद्रकी भाँति अगाध है, बुद्धिकी सीमासे परे है| लोक-आदर्शका ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है| भ्रातृप्रेमकी तो ये सजीव मूर्ति थे|
श्रीहनुमानजी आजम नैष्ठिक ब्रह्मचारी, व्याकरणके महान् पण्डित, ज्ञानिशिरोमणि, परम बुद्धिमान् तथा भगवान् श्रीरामके अनन्य भक्त हैं| ये ग्यारहवें रुद्र कहे जाते हैं|
महारानी कौसल्याका चरित्र अत्यन्त उदार है| ये महाराज दशरथकी सबसे बड़ी रानी थीं| पूर्व जन्ममें महराज मनुके साथ इन्होंने उनकी पत्नीरूपमें कठोर तपस्या करके श्रीरामको पुत्ररूपमें प्राप्त करनेका वरदान प्राप्त किया था| इस जन्ममें इनको कौसल्यारूपमें भगवान् श्रीरामकी जननी होनेका सौभाग्य मिला था|
भगवती श्रीसीताजी की महिमा अपार है| वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास तथा धर्मशास्त्रोंमें इनकी अनन्त महिमाका वर्णन है| ये भगवान् श्रीरामकी प्राणप्रिया आद्याशक्ति हैं|
वाली और सुग्रीव दोनों सगे भाई थे| दोनों भाइयोंमें बड़ा प्रेम था| वाली बड़ा था, इसलिये वही वानरोंका राजा था| एक बार एक राक्षस रात्रिमें किष्किन्धामें आकर वालीको युद्धके लिये चुनौती देते हुए घोर गर्जना करने लगा|
कैकेयीजी महाराज केकयनरेशकी पुत्री तथा महाराज दशरथकी तीसरी पटरानी थीं| ये अनुपम सुन्दरी, बुद्धिमति, साध्वी और श्रेष्ठ वीराग्ङना थीं| महाराज दशरथ इनसे सर्वाधिक प्रेम करते थे|
अयोध्यानरेश महाराज दशरथ स्वायम्भुव मनुके अवतार थे| पूर्वकालमें कठोर तपस्यासे इन्होंने भगवान् श्रीरामको पुत्ररूपमें प्राप्त करनेका वरदान पाया था|
शबरीका जन्म भीलकुलमें हुआ था| वह भीलराजकी एकमात्र कन्या थी| उसका विवाह एक पशुस्वभावके क्रूर व्यक्तिसे निश्चय हुआ| अपने विवाहके अवसरपर अनेक निरीह पशुओंको बलिके लिये लाया गया देखकर शबरीका हृदय दयासे भर गया|
श्रीशत्रुघ्नजी का चरित्र अत्यन्त विलक्षण है| ये मौन सेवाव्रती हैं| बचपनसे श्रीभरतजीका अनुगमन तथा सेवा ही इनका मुख व्रत था| ये मितभाषी, सदाचारी, सत्यवादी, विषय-विरागी तथा भगवान् श्रीरामके दासानुदास हैं| जिस प्रकार श्रीलक्ष्मणजी हाथमें धनुष श्रीरामकी रक्षा करते हुए उनके पीछे चलते थे, उसी प्रकार श्रीशत्रुघ्नजी भी श्रीभरतजीके साथ रहते थे|
श्रीलक्ष्मणजी शेषावतार थे| किसी भी अवस्थामें भगवान् श्रीरामका वियोग इन्हें सहा नहीं था| इसलिये ये सदैव छायाकी भाँति श्रीरामका ही अनुगमन करते थे| श्रीरामके चरणोंकी सेवा ही इनके जीवनका मुख्य व्रत था|