HomePosts Tagged "शिक्षाप्रद कथाएँ" (Page 121)

यूरोप में यूनान नामका एक देश है| यूनान में पुराने समय में मिदास नामका एक राजा राज्य करता था| राजा मिदास बड़ा ही लालची था| अपनी पुत्री को छोड़कर उसे दूसरी कोई वस्तु संसार में प्यारी थी तो बस सोना ही प्यारा था|वह रात में सोते-सोते भी सोना इकठ्ठा करने का स्वप्न देखा करता था|

एक बार जनमेजय अपने भाई श्रुतसेन, और भीमसेन के साथ यज्ञ कर रहे थे| उस बीच एक कुत्ता यज्ञशाला में घुस गया| कुत्ते को उस पवित्र यज्ञशाला में देखकर सभी बड़े क्रुद्ध हुए और जनमेजय के तीनों भाइयों ने उस कुत्ते को खूब मारा, जिससे कुत्ता रोता हुआ अपनी मां सरमा के पास पहुंचा|

एक बाबा जी थे| कहीं जा रहे थे नौका में बैठकर| नौकामें और भी बहुत लोग थे| संयोग से नौका बीच में बह गयी| ज्यों ही वह नौका जोर से बही, मल्लाह ने कहा-‘अपने-अपने इष्ट को याद करो, अब नौका हमारे हाथ में नहीं रही|

एक किसान ने एक नेवला पाल रखा था| नेवला बहुत चतुर और स्वामिभक्त था| एक दिन किसान कहीं गया था| किसान की स्त्री ने अपने छोटे बच्चे को दूध पिलाकर सुला दिया और नेवले को छोड़कर वह घड़ा और रस्सी लेकर कुएँ पर पानी भरने चली गयी|

कसी के पास धन बहुत है तो यह कोई विशेष भगवत्कृपा की बात नहीं है| ये धन आदि वस्तुएँ तो पापी को भी मिल जाती हैं-‘सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी के भी होय|’ इनके मिलने में कोई विलक्षण बात नहीं है|

बादशाह सुबुक्तगीन पहले बहुत गरीब था| वह एक साधारण सैनिक था| एक दिन वह बंदूक लेकर, घोड़ो पर बैठकर जंगल में शिकार खेलने गया था| उस दिन उसे बहुत दौड़ना और हैरान होना पड़ा| बहुत दूर जाने पर उसे एक हिरनी अपने छोटे बच्चे के साथ दिखायी पड़ी| सुबुक्तगीन ने उसके पीछे घोड़ा दौड़ा दिया|

संसार में किसी का कुछ नहीं| ख्वाहमख्वाह अपना समझना मूर्खता है, क्योंकि अपना होता हुआ भी, कुछ भी अपना नहीं होता| इसलिए हैरानी होती है, घमण्ड क्यों? किसलिए? किसका? कुछ रुपये दान करने वाला यदि यह कहे कि उसने ऐसा किया है, तो उससे बड़ा मुर्ख और कोई नहीं और ऐसे भी हैं, जो हर महीने लाखों का दान करने हैं, लेकिन उसका जिक्र तक नहीं करते, न करने देते हैं| वास्तव में जरूरतमंद और पीड़ित की सहायता ही दान है, पुण्य है| ऐसे व्यक्ति पर सरस्वती की सदा कृपा होती है|

वृन्दावन में एक भक्त को बिहारी जी के दर्शन नहीं हुए| लोग कहते कि अरे! बिहारी जी सामने ही तो खड़े हैं| पर वह कहता कि भाई! मेरे को तो नहीं दिख रहे! इस तरह तीन दिन बीत गये पर दर्शन नहीं हुए|

अर्जुन ने अपने-आपको श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया था| अर्जुन होता हुआ भी, नहीं था, इसलिए कि उसने जो कुछ किया, अर्जुन के रूप में नहीं, श्रीकृष्ण के सेवक के रूप में किया| सेवक की चिंता स्वामी की चिंता बन जाती है|