श्रावण मास माहात्म्य – अध्याय-24 (कृष्णावतार महासेन की कथा)
शिव बोले-हे सनत्कुमार! पूर्व काल में राक्षसों के अत्याचार से दुःखित हो पृथ्वी श्री ब्रह्माजी के पास गई| उसकी पुकार सुन कर ब्रह्माजी श्रीरसागर में गये| वहाँ पर उन्होंने विष्णु भगवान् से बहुत विनय करके पहले उन्हें प्रसन्न किया| फिर उन्होंने सारा वृतान्त कह सुनाया| भगवान् हरि (विष्णु) ने ब्रह्माजी और देवों को किया| उन्होंने उनको आश्वासन देकर कहा कि वे वासुदेव की पत्नी की कोख से उत्पन्न हो पृथ्वी को भारमुक्त कर देंगे| फिर वे आकाश में विलीन हो गये| उन्होंने देवों को पृथ्वी पर जाकर यदुवंशियों के रूप में पैदा होने को कहा कंस ने अपनी मृत्यु-भय से बचने के लिए अपनी बहन देवकी और वासुदेव को कारागृह में डाल दिया| तब वासुदेव ने कृष्ण के पैदा होने पर एक रात उसे नन्द बाबा के यहाँ पहुँचा दिया| कृष्ण ने बड़े होने पर मथुरा आकर अपने साथियों सहित कंस को मार डाला| मथुरावासी प्रसन्न हो प्रभु से बोले-हे कृष्ण! हे महायोगी! हे देवों के अभयदाता! हे शरणागत-रक्षक! हम आपको बारम्बार प्रणाम करते हैं| आप हमारी रक्षा अवश्य करेंगे क्योंकि हम सब आपकी शरण में हैं| आप हमारी विनती सुनें| हे प्रभु! आपके जन्म दिन का किसी को भी आभास नहीं था| अब हम जान गये हैं तो हम आपके निमित ‘वर्द्धापनोत्सव’ अवश्य करेंगे| प्रभु ने उनका प्रेम देखकर जन्मदिवस पर होने वाले कार्य को बतलाया| उस विधि के अनुसार लोगों ने नियमानुसार व्रत किया| उपवासियों को प्रभु ने वर एवं आशीर्वाद दिया|
शिव बोले – हे वत्स! अब मैं तुम्हें एक प्राचीन कथा कहता हूँ| जो इस प्रकार है-अंग देश में मित्ररजित नामक राजा हुआ था| उसके पुत्र का नाम महासेन था| वह अत्यन्त साधु स्वभाव का था| वह अपनी प्रजा का तन-मन-धन से पालन एवं रक्षा करता था| जनता भी राजा को तन-मन-धन से प्यार करती थी| लेकिन अचानक कुसंगति के कारण राजा अधर्मी बन गया| वह वेद और पौराणिक शास्त्रों की निन्दा करता था| वर्णाश्रम धर्म के भी अति विरुद्ध था| इस प्रकार के अधर्मी कृत्यों में लिप्त रहते हुए उसे बहुत समय व्यतीत हो गया|
उसे पृथ्वी से यमदूतों ने पाश में बांधकर यमलोक ले जाकर चित्रगुपत के समक्ष पेश किया| वहाँ उसके साथ क्रूर व्यवहार किया गया और नरक में डाल दिया गया| फिर उसे पिशाच-योनि प्राप्त हुई|
बहुत समय भूख-प्यास से पीड़ित हो वह घूमता हुआ मारवाड़ देश पहुँच गया| वहाँ पर वह एक वैश्य के शरीर में प्रविष्ट होकर घूमता हुआ मथुरा नगरी पहुँचा तो नगरी के धर्म-रक्षकों ने उसे वैश्य देह से अलग कराया तो वह मथुरा नगरी में भी मारा-मारा फिरता हुआ दैवयोग से वनों और आश्रमों में घूमता हुआ जन्माष्टमी वाले दिन ऋषियों और मुनियों द्वारा रात्रि के धार्मिक गायन-वादन सभा में सम्मिलित हो गया| वहाँ पर वह रात भर जागता रहा तो उसने भी हरि-कथा सुनी जिसके प्रभावस्वरूप वह कुछ काल पश्चात् भवसागर से मुक्त हो अपना शरीर छोड़कर प्रभु के विमान में सवार हो विष्णुलोक चला गया|
यही कारण है कि आचार्यों व महर्षियों ने इस व्रत को विधि अनुसार ही करने को बतलाया है| यह समस्त भोग-उपभोग प्रदान कर सारी मनोकांक्षाओं की पूर्ति करता है| इस व्रत के पुण्य फलस्वरूप सारे मनोरथ पूरे हो जाते हैं| बैकुण्ठ में ही वह देवमान के अनुसार एक लाख साल तक सब प्रकार के भोग-उपभोगों को भोग कर बचे हुए पुण्य के कारण ही पृथ्वी पर आता है| यहाँ पर भी वह राजवंश में उत्पन्न हो अनेक प्रकार के सुख पाता है|
जहाँ पर विश्वसृष्ट व्रत और उत्सव सहित प्रार्थना-पूजा-अर्चना होती है वहाँ पर कभी भी किसी प्रकार का अधर्म व अशुभ नहीं होता है| वहाँ पर इन्द्रदेव की कृपा से मेघ भी मधुर वर्षा करते हैं| जिन गृहों में कृष्ण-पूजन नियमानुसार होता है वहाँ पर सदैव ही सब प्रकार की ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ वास करती हैं|