श्रावण मास माहात्म्य – अध्याय-23 (श्रावण कृष्ण जन्माष्टमी व्रत)
भगवान शिव बोले-हे सनत्कुमार! श्रावण मास के कृष्ण-पक्ष की अष्टमी की अर्ध रात्रि को वृष कालीन चन्द्रमा में इस योग के आने पर देवकी ने कारागृह में वासुदेव-पुत्र कृष्ण को जन्म दिया| वैसे सिंह राशि का सूर्य पड़ने पर उत्सव का आयोजन किया जाना चाहिए| पहले सप्तमी को प्रातः शौच व दातुन से निवृत हो अल्प-मात्रा में भोजन ग्रहण करें| रात्रि को स्त्री-संसर्ग से बचें, फिर प्रातः व्रत-नियम से रहें| अष्टमी को सारा दिन भगवान कृष्ण के लिए व्रतधारी रहें|
इस प्रकार सांसारिक प्राणी को सात जन्मों के पापों से मुक्ति मिल जाती है| पापों से मुक्त हो गण सहित वास करना ही व्रत कहलाता है| अष्टमी वाले दिन व्रती को तिल सहित पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए| शोभन प्रदेश में देविका का सूतिका-गृह स्थापित कर उसे विभिन्न प्रकार के फूलों से सज्जित कर वहाँ पर कलश रख उसको फलों से सजाकर पुष्प, चन्दन, अमरू, धूप तथा दीपों की माला से श्योभाभायमान बनायें| नृत्य, वाद्य, गायन से कृष्ण-कीर्तन करें| दीवार के एकदम मध्य में षष्ठी देवी के साथ कृष्ण भगवान को स्थापित करें| अपनी अर्थ-शक्ति के अनुसार यह प्रतिमा मिट्टी, तांबे, पीतल, चांदी अथवा सोने की बनवानी चाहिए| यह सभी प्रकार से रंगी हुई हो| ऐसी सर्वलक्षण वाली प्रतिमा के साथ शय्या पर प्रसूता की प्रतिमा भी स्थापित करें| उस प्रसूता प्रतिमा के साथ बाल कृष्ण को भी सतनपान करते हुए दिखलायें| प्रसूता और बाल-कृष्ण के साथ देव, यक्ष, विद्याधर तथा अमरों को भी हाथ जोड़े हुए मूर्तिस्वरूप अंकित करवायें|
साथ ही तलवार-ढाल लिए हुए वासुदेव को भी स्थापित करवायें| उन वासुदेव में कश्यप की, देवकी में अदिति की और बलदेव में शेषनाग की कल्पना करें| नंद, दक्षपति, ब्रह्मा, गर्ग, गोपियां, अप्सरायें, गोपद, कालनेमि और उसके भेजे हुए असुर वृषासुर, धेनु, कुवलयापीड तथा अन्य सुर या असुर भी वहाँ पर चिन्हित किये जाने चाहिए| भगवान कृष्ण द्वारा अपने जीवन-काल में किये गये कृत्य भी भली प्रकार से लिखकर पूजित किये जाने चाहिए| लगातार वेणु-वीणा-विनोद के साथ गाती हुई अप्सराओं द्वारा पूजित तथा श्रृंगार, दर्पण, दधि, कलश, दूर्वा आदि धारण किये सुरों से सेवित प्रसन्न वदन वाली देवकी अपने पुत्र सहित प्रसन्न-वंदन शय्या पर विश्राम करती हुई दिलायें|
विश्वज्ञाता को पाप-नाशवान मान शुरू में प्रणव’ और आखिर में ‘नमः’ लगाकर चतुर्थ्यंत सहित भिन्न-भिन्न नाम से कीर्तन करें| देवकी, वासुदेव, बलदेव, यशोदा, नंद सबकी भिन्न-भिन्न रूप से पूजा करें| चन्द्रमा के आकाश में उदित होने पर प्रभु को याद करते हुए उसे अर्घ्य देते हुए उच्चारण करें-‘हे क्षीरोदार्णव संभूत! अत्रिगोत्र समुद्भव! आपको बारम्बार प्रणाम है| हे रोहिणी नंदन! आप मेरा यह अर्घ्य स्वीकार करें| देवकी-यशोदा, योशदा-नन्द, चन्द्रमा-रोहिणी व कृष्ण-बलदेव का विधि-विधान से पूजन करें| इस भांति यह सांसारिक प्राणी सब प्रकार की भोग-उपभोग की वस्तुएं पा जाता है| यह कृष्ण जन्माष्टमी व्रत एक करोड़ एकादशी उपवासों से भी अधिक श्रेष्ठ है|
अष्टमी की रात्रि को पूजन-कीर्तन कर नवमी को देवी भगवती विंध्यवासिनी का भी कृष्ण-महोत्सव सम आयोजन करें| उस दिन भक्तिभाव से ब्राह्मणों को भोजन करा, उन्हें उचित दक्षिणा (गौ, धान, सम्पत्ति आदि) दे विदा करें और यह बोलें- ‘हे भगवान कृष्ण! आप मुझ पर हर्षित हों| मैं गौ तथा ब्रह्माण के रक्षक वासुदेव को प्रणाम करता हूँ| सर्वत्र शांति हो व सबका कल्याण हो|’ ऐसा बोलकर विसर्जन करें| तब मौन धारण कर रिश्तेदारों के साथ स्वयं भी भोजन ग्रहण करें| इस प्रकार जो प्राणी प्रत्येक साल यह उत्सव मनाता है, वह निरोग एवं असाधारण सौभाग्यशाली बनता है| वह अपने परिवार सहित मरणोपरान्त बैकुण्ठ (मोक्ष) पाता है|
शंकरजी बोले-हे पुत्र! अब मैं तुमको उद्यापन-विधि विस्तार से बतलाता हूँ| जो इस प्रकार है –
उद्यापन किसी भी दिवस नियमानुसार मनायें| एक दिन पूर्व केवल एक समय ही भोजन करें| उस दिन सोते हुए भगवान विष्णु को स्मरण करें| भोर तथा संध्या को ब्राह्मणों से स्वस्तिकवाचन करवाकर आचार्य को नियुक्त कर ऋत्विजों का पूजन करें| धन की कृपणता छोड़कर एक, आधा या चौथाई पल की सोने की मूर्ति स्थापित करवायें| उन पर मिट्टी अथवा तांबे का कलश रखवाकर उस पर चाँदी या बाँस का पूर्ण पात्र रखवा दें| उसे कपड़े से ढककर व्रती को उस परं वैदिक या तांत्रिक मन्त्रों की सहायता से 16 उपचारों से पूजा करनी चाहिए| देवकी के साथ-साथ प्रभु को भी अर्घ्य देना उचित है| शंख में पवित्र जल, फल, फूल व चन्दन डाल कर नारिकेल फल के साथ पृथ्वी पर जानु के बल झुककर बैठते हुए बोलें-हे प्रभु! हे मुरारी! हे कृष्ण! आपका पृथ्वी रक्षा हेतु भूमि पर अवतार हुआ है| कौरवों के विनाश के लिए आप पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं| आप मेरी तुच्छ भेंट को स्वीकार करें| पहले कही गई विधि से व्रती को चन्द्रमा के लिए अर्घ्य देना चाहिए और बोलना चाहिए-हे जगन्नाथ! हे प्रभो! हे देवकीतनयँ! हे वासुदेव-पुत्र! हे अनंत! आपको प्रणाम है| आप मुझे संसार सागर से पार लगायें|
इस तरह प्रभु विनती कर रात्रि जागरण भी करें| आने वाले दिन प्रातः प्रभु-पूजा करके श्रद्धाभाव से मुख्य मन्त्र से पायस, तिल और शुद्ध घी से 108 बार होम करके फिर पुरुषसूक्त से हवन करना अनिवार्य है| होम के लिए इद्-विष्णु’ मन्त्र का उच्चारण कर, फिर पूर्णाहुति होम आदि बाकी के कार्य पूरे करें| आचार्य की पूजा के लिये भूषणाच्छादन का प्रयोग करें| व्रत पूरा होने पर उन्हें एक कपिला गाय दक्षिणा में दे| वह सुशीला, पयस्विनी, सवत्सा, सगुणा, स्वर्णश्रृंगी, रौष्य खुरा, कांस्य-दोहिनी, युवा, पोती-पूंछ वाली, पीठ जिसकी तांबे जैसी हो व गले में स्वर्ण-घंटिका हो| ऐसी गौ दान करने से व्रत पूरा हो जाता है| ऋत्विजों को वर्णानुसार ही श्रेष्ठता जान कर दक्षिणा प्रदान करनी चाहिए| आठ ब्राह्मणों को प्रेम सहित और एकचित हो भोजन देना चाहिए और आठ जल से परिपूर्ण कलश भी दान में दें| तब उन ब्राह्मणों से आज्ञा लेकर अपने रिश्तेदारों सहित स्वयं भी आनन्दपूर्वक भोजन ग्रहण करना चाहिए|
शंकरजी बोले-हे वत्स! इस विधि से व्रत एवं उद्यापन करने से प्राणी सब दोषों से मुक्त हो जाता है व उसके समस्त दुष्कर्म नष्ट हो जाते हैं| वह इस लोक में भी अनंतकाल तक भोग-उपभोग कर मरणोपरान्त वह बैकुण्ठ (मोक्ष) पाता है|