श्रावण मास माहात्म्य – अध्याय-13 (दुर्गा-गणपति की व्रत कथा)
सनत्कुमार बोले हे प्रभु! वह कौनसा व्रत है जिससे अतुल्य सौभाग्य प्राप्त होता है तथा मनुष्य पुत्र-पौत्रादि, धन-ऐश्वर्यादि प्राप्त कर अनंतकाल तक सुखी रहता है| यह सुनकर शिव ने कहा – हे पुत्र! विश्वप्रसिद्ध दुर्गा-गणपति व्रत को महादेवी (पार्वती) ने असीम श्रद्धा भाव से सम्पन्न किया था| हे महामुनि! इससे पूर्व इस व्रत को इन्द्र, सरस्वती, कुबेर, विष्णु व अन्य देवगण, किन्नर, गन्ध वे भी पूरा कर चुके हैं|
यह व्रत श्रावण मास के शुक्ल-पक्ष में आने वाली चतुर्थी को किया जाता है| उस दिन एक दंत वाले, हाथी-समान मुख वाले गणेश की स्वर्ण-प्रतिमा आसन पर स्थापित करवानी चाहिए| उस आसन पर स्वर्ण-दूर्वा बिछाकर ताँबे के कलश पर स्थापना करवानी चाहिए| फिर लाल वस्त्र बिछाकर स्वेवोभद्र मन्डल का निर्माण करा कर उस पर कलश स्थापित करवा दें| पूजा के लिये लाल पुष्प तथा पाँच पत्र लें| फूल-पत्रों में अपामार्ग, शमी, दूर्वा, तुलसी, बिल्वपत्र और मौसम के अनेक प्रकार के खुशबूदार फल लें और उनके नैवेद्य से सोलह उपचार द्वारा गणेश-पूजन करें और इस प्रकार प्रार्थना करें –
‘इस स्वर्ण-प्रतिमा में, मैं विघ्नेश का आह्वान करता हूँ| दयानिधान आ यहाँ पर पधारें| मैं उनको रत्नाभूषण से बना सिंहासन प्रदान करता हूँ| हे महाप्रभु! इसे स्वीकार करो| हे उमापति व पार्वती के सुत! हे विश्वपालक! हे आकाशपति! आपको बार-बार प्रणाम है| आप मेरे दु:खों का विनाश करें| यह पाद्य मैं आपको देता हूँ| हे गणेश्वर! हे पार्वती-पुत्र! हे वन्दनीय! मैं आपको यह अर्घ्य प्रदान करता हूँ| इसे स्वीकार कर लें| हे विनायक! हे शंकर-उमा पुत्र! हे गणेश! आपको पुनः नमस्कार है| मैं आपको आचमनीय देता हूँ| हे सुरपुंगव! हे गणेश! मैं आपके लिए प्रार्थनाबद्ध सर्वतीर्थ-जल यहाँ लाया हूँ| इसे आप ग्रहण करें| यह दो वस्त्र जो सिंदूर व केसर से अभिषिक्त हैं, ये आपके लिए हैं| आप इन्हें भी ग्रहण करें| आपको, मैं सादर दण्डवत् हो प्रणाम करता हूँ| हे उमामंगल सम्भूत! आप समस्त विघ्नों के विनाशक हैं| हे लम्बोदर! हे त्रिभुवन रक्षक! यह चन्दन भी आप ग्रहण करें| हे सुरश्रेष्ठ! हे विघ्न-विनाशक!
हे दयमय! मेरी श्रद्धा व भक्ति से सिक्त न लाल चन्दन में डूबे हुए अक्षतों को आप ग्रहण करें| चम्पक, केतकी, जपा तथा अन्य सुगन्धित पुष्पों से मैं आपकी अर्चना करता हूँ| आप मुझ पर अनुग्रहीत हों| आप प्रसन हों| आप हर्षित हो मेरी धूप-अर्चना ग्रहण करें| लोक कल्याण के लिए आपको दानवों का वधकारक होना है| हे सर्वज्योत प्रकाशक! आप धन्य हैं| ‘गणानां त्वा’ वैदिक मन्त्र के उच्चारण से मैं आपको लड्डू, चतुर्विध अन्न और खीर आदि नैवेद्य, कपूर तथा इलायची वाला पान, सम्मान सहित मुख में रखने के लिए आपको प्रदान कर रहा हूँ| हिरण्यगर्भ में स्थित अग्नि देव वाली सोने की वजि को मैं आपको दक्षिणास्वरूप दे रहा हूँ|
अत: हे गणेशदेव! आप मुझे शान्ति प्रदान करें| हे गणाध्यक्ष! हे गणपति! हे वन्दनीय! हे गजानन! मेरा यह चतुर्थी का व्रत आपके प्रसार से परिपूर्ण हो|
इस तरह अपने धन-वैभव के विस्तार के अनुसार विघ्नेश देव गणपति का पूजन करके सामग्री सहित आचार्य के लिये गणाध्यक्ष से संबंधित निम्नांकित प्रार्थना करें –
‘हे भगवान! हे ब्राह्मण! गणरजा को आप दक्षिणा सहित स्वीकार करें| आपकी वाणी से मेरा यह व्रत पूर्ण हो|’
जो प्राणी पाँच, साल तक इस प्रकार व्रत करके उद्यापन करता है, वह इस लोक में तो मनोवांछित फल पाता ही है, अपितु मरणोपरान्त शिवलोक (मोक्ष) ग्रहण करता है| तीन वर्ष तक इस व्रत को पूरा करने वाला भी समस्त सिद्धियों को पाने वाला और अन्त में वह मरकर मोक्ष (शंकर) पद पाता है| इस व्रत को उद्यापन सहित करना अत्यावश्यक है| ऐसा न करने पर अर्थात एक साल तक नियमानुसार न करने से सब कुछ व्यर्थ हो जाता है| जिस दिन उद्यापन करना हो उस दिन तिल-स्नान करना चाहिए| गणेशजी की एक पल, आधा पल अथवा चौथाई पल की स्वर्ण-प्रतिमा को पंचगन्य से स्नान कराकर दूर्वा द्वारा उसकी अर्चना करें| तब निम्नलिखित मंत्र बोलना चाहिए –
हे पतितपावन! हे विनायक! हे उमापुत्र! आपको बारम्बार प्रणाम है| हे विनायक! हे जगत्पालक! हे मंगलकारी! हे मूषकवाहक! हे महाप्रभु! हे ईशपुत्र! हे अनंतसिद्धिदायक! आपको प्रणाम है| आप हमारी विनती स्वीकार करें| नामों से अलग-अलग अर्चना करनी चाहिए| प्रथम दिवस अधिवासन और दूसरे दिन प्रात: ही हवन करें| ग्रह होम के पश्चात् मुख्य होम लड्डू तथा दूर्वा से करें| यह प्रधान होम दूध तथा लड्डू का भी होता है| पूर्णाहुति के पश्चात् आचार्य और ब्राह्मणों का पूजन करें| अपनी सामर्थ्यानुसार ब्राह्मणों का पूजन कर दुधारू गाय (बछड़े वाली) दान में दें| इस प्रकार व्रत करने वाला जीव अपने सभी मनोवांछित फल पाता है|
शिव बोले-हे वत्स! मैं अपने प्रिय पुत्र गणेश का व्रत करने वाले का हित करता हूँ| मैं उसे इस भूलोक में समस्त ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करता हूँ| क्योंकि वह मुझे तथा उमा को अति प्रिय होता है| अन्त में वह मेरे लोक को ही आता है| भूलोक में उसके वंश के वृद्धि होती है|
हे सनत्कुमार! मैंने तुम्हें दुर्गा-गणपति का यह गुप्त व्रत विधि पूर्वक कह सुनाया है| यह सर्वोत्तम व्रत है| सुख, वंश-वृद्धि तथा ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिए यह व्रत अवश्य ही करना चाहिए|