श्रावण मास माहात्म्य – अध्याय-12 (स्वर्ण गौरी व्रत)
शिव बोले-हे वत्स! अब मैं तुम्हें श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली तृतीया तिथि को किए जाने वाले उत्तम तथा पवित्र ‘स्वर्ण-गौरी व्रत’ के बारे में बतलाता हूँ| उस दिन व्रती को सुबह जल्दी उठकर नित्यकर्म व स्नान से निवृत होकर संकल्प करना चाहिए| तब सोलह उपचारों से शिव और पर्वती का पूजन करना चाहिए| साथ ही इस प्रकार प्रार्थना भी करे-‘हे जगत्पति! हे सुरपति! हे जगदीश्वर! मेरी अर्चना आप स्वीकार करें| भवानी महादेवी के सोलह बायन पति-पत्नियों (जोड़े) को दान में देता हूँ|’
पहले चावल का आटा बनाएं| चावल के आटे से बनाये गये| सोलह मीठे पकवान, बाँस की 16 टोकरियों में सजाकर, उनके साथ वस्त्रादि रखकर, स्वर्ण अलंकार आदि से सजाकर, अपनी पत्नी सहित ब्राह्मणों को बुलाकर, अपने सम्मुख बिठाकर बोले-‘मैं व्रत को पूरा करने के लिए, फल प्राप्त करने के लिए यह आपको देता हूँ| वस्त्राभूषण अलंकार आदि से परिपूर्ण पतिव्रत धर्म सहित शाभन सुवासिनी इसे ग्रहण करें|’
इस प्रकार एक वर्ष, चार वर्ष, आठ वर्ष और सोलह वर्ष तक व्रत कर, तत्पश्चात् पूजा पूरी करने के बाद ही उद्यापन करें| कथा सुनने के बाद महर्षि व्यास की पूजा करें|
सनत्कुमार ने शिव से पूछा-‘हे प्रभो! पहले यह व्रत किसने किया था? इसका माहात्म्य क्या है? यह सब आप मुझे विस्तार से बतलाएं करें|
शिव बोले-हे वत्स! यह ‘स्वर्ण गौरी व्रत’ पृथ्वी के समस्त प्राणियों को धन-धान्य से परिपूर्ण कर अतुल धन-सम्पदा का स्वामी बना देता है| पुरातन काल में सरस्वती के तट पर बसी सुविला नगरी में चन्द्रप्रभा नरेश का शासन था| वह अतुल धन-सम्पदा का स्वामी और अति बलशाली था| उसकी दो अति रूपवान रानियाँ थीं| उनके नाम महादेवी तथा विशाला थे| बड़ी रानी महादेवी को नरेश अधिक चाहते थे|
एक दिन राजा वन में शिकार खेलने गये| वहाँ पर अनेक प्रकार के पशुओं का शिकार करते हुए काफी समय व्यतीत हो गया तो वे भूख-प्यास से व्याकुल हो इधर-उधर घूमने लगे| काफी दूर निकल जाने पर उन्हें एक तालाब दिखलाई पड़ा| तालाब चारों से मनोरम था| वहाँ राजा ने देखा कि देवलोक की अप्सरायें स्वर्ण गौरी की पूजा में लीन थीं| उनको राजा ने कहा-हे देवियों! आप यहाँ किस प्रयोजन हेतु यह पूजन कर रही हैं? इस पर उन्होंने उत्तर दिया–हे नरेश! हम सब स्वर्ण गौरी की पूजा कर रही हैं| इस व्रत के फलस्वरूप प्राणियों को प्रत्येक प्रकार की धन-सम्पदा मिलती है| इसलिये हे नरेश! आपको भी अपनी प्रजा की भलाई एवं धन प्राप्ति के लिए यह व्रत अवश्य ही करना चाहिए|
इस पर राजा बोले-हे देवियों! इस व्रत को करने की विधि मुझे मालूम नहीं है, वह आप मुझे बतलायें| इससे प्राप्त होने वाला फल भी मुझे कह सुनाइये|
अप्सरायें बोलीं-हे नरेश! श्रावण मास में शुक्ल पक्ष में आने वाली तृतीया तिथि को यह व्रत किया जाता है|
इस में शिव-पार्वती का श्रद्धा और भक्ति से पूजन किया जाता है| इसके लिये पुरुषवर्ग अपने दांये हाथ में 16 तार का डोरा और स्त्रीवर्ग भा 16 तार का डारा गले या बायें हाथ में बाँधते हैं| इस व्रत की बस यही विधि है|
चन्द्रप्रभा नरेश ने भी 16 तार का डोरा अपने दांये हाथ में बाँध कर प्रभु से प्रार्थना की हे जन-दु:खनिवारक महाप्रभु! में आपके व्रत के लिये यह डोरा अपने हाथ में बाँधता हूँ| आपका दयापूर्ण हस्त मुझ पर रहे| तब राजा इस व्रत को समाप्त कर राजधानी गये| परन्तु राजा के हाथ में डोरा देखकर रानी अति क्रोधित हो उठी| उसने राजा के हाथ से डोरा बलपूर्वक तोड़कर बाहर दूर एक वृक्ष पर डाल दिया| राजा ने उसे ऐसा करने से बहुत मना किया, परन्तु रानी ने राजा की बात नहीं मानी|
उस डोरे के स्पर्श से वह सूखा पेड़ अल्पकाल में ही हरा-भरा हो गया| छोटी रानी इससे बहुत प्रभावित हुई| उसने पेड़ पर से वह डोरा उतार कर अपने हाथ में बाँध लिया| उस डोरे के प्रभाव से छोटी रानी का रूप-लावण्य अधिक निखर गया तो अब वह राजा को प्रिय लगने लगी| बड़ी रानी ने व्रत के डोरे का अपमान किया था फलत: राजा ने उसका परित्याग कर दिया और वह दु:खी हो वन में चली गई| वहाँ जाकर उसने पार्वती का ध्यान किया| वह वहाँ पर मुनियों के आश्रम के पास कुटिया बनाकर रहने लगी| मुनि उसे देखकर अति कुपित हुए और उसे वहाँ से भगा दिया| तब वह दु:खी हो उस वन में दूसरी जगह जा बैठी|
उसे वहाँ पर बैठे देखकर पार्वती का हृदय द्रवित हो गया| उसने रानी को दर्शन दिये| रानी ने प्रसन्न हो उसकी चरण-वन्दना की और प्रणाम कर बोली-हे देवी! आपकी जय हो| हे शंकर-पत्नी! हे भक्तवत्सली! आपकी जय हो| आपको बारम्बार प्रणाम है| हे मंगले! आप वन्दनीय हैं| इस प्रकार देवी ने भी पार्वती से वर प्राप्त कर ‘स्वर्ण गौरी’ का व्रत किया| व्रत के प्रभाव से नरेश जंगल में रानी के पास पहुँचा| वह रानी को महल में वापस ले आया| महादेवी के स्वर्ण गौरी व्रत के प्रभाव से राजा तथा उसकी दोनों रानियों की समस्त मनोकामनायें पूरी हो गई| उन तीनों ने समस्त ऋद्धि-सिद्धियों का उपभोग किया| मरणोपरान्त राजा अपनी रानियों सहित शिवलोक चला गया|
शिव बोले-हे पुत्र! इस प्रकार जो भी प्राणी स्वर्ण गौरी का व्रत नियमानुसार करता है वह मुझे तथा पार्वती को अत्यन्त प्रिय लगता है| भूलोक में उस पर लक्ष्मी की वर्षा होती है| उसके समस्त दुश्मनों का विनाश होता है| अन्तकाल में वह भव-बधन से मुक्त हो शिवधाम जाता है| शिवजी ने कहा-हे वत्स! अब आप दत्तचित्त हो उद्यापन कि विधि सुनो|
शुभ तिथि, शुभ वार, चन्द्रबल व ताराबल हो जाने पर मन्डप में अष्ट्रपत्र कमल पर अनाज से परिपर्ण कलश रखकर उस पर ताँबे का पात्र (जो सोलह पल का हो) रखें| उस पर भी एक बड़ा पात्र रखें जो तिल से परिपूर्ण हो| सबसे ऊपर शिव-पार्वती की प्रतिमायें रखें| उनके साथ दो सफेद वस्त्र तथा यज्ञोपवीत भी रखें| विधि अनुसार वेद-मन्त्रों से पूजा करें| रात्रि जागरण भी करें| दूसरे दिन ग्रहहोम और अधानहोम करें| तब एक हजार अथवा एक सौ आहुतियाँ दें जो जौ मिश्रित तिल को घी में मिलाकर बनी हों| आचार्य का पजन करके उसे वस्त्र, आभूषण, गौ आदि दान में दें| तब सोलह बायन दान करके ब्राह्मणों को भी भोजन करायें| ब्राह्मणों को भी अपने धन की क्षमता के अनुसार स्वयं पत्नी सहित दक्षिणा दें|