मुझे सिर्फ़ तू चाहिए
भाई मंझ बड़ा अमीर आदमी था, बल्कि अपने गाँव का सबसे बड़ा ज़मींदार था| वह सुलतान सखी सरवर का उपासक था| एक दिन इत्तफाक़ से गुरु अर्जुन साहिब के सत्संग में चला गया| उसे सत्संग अच्छा लगा| पिछले कर्म उदय हुए, नाम माँगा| गुरु साहिब ने पूछा, “भाई, तू किसे मानता है?” उसने जवाब दिया, “जी मैं सखी सरवर को मानता हूँ|” तब गुरु साहिब ने कहा, “अच्छा, तेरे घर में जो पीरख़ाना है उसको गिराकर आ, तब नाम दूँगा|”
भाई मंझ घर गया और पीरख़ाने की ईंट-ईंट बिखेर दी| सबने कहा कि तूने बड़ा पाप किया है, सुलतान तुझ पर मुसीबत लायेगा, हम तुम्हारा साथ नहीं देंगे| भाई मंझ ने जवाब दिया कि अब जो हो सो हो| जब पीरख़ाना गिराकर गया तो गुरु साहिब ने अधिकारी देखकर नाम दे दिया और साथ ही उसकी परीक्षा भी लेने लगे| कभी उसके घोड़े मर गये, कभी बैल मर गये, कभी कुछ मर गया, कभी कुछ नुक़सान हो गया और फिर चोरों ने उसका बहुत-सा सामान चोरी कर लिया| लोगों ने कहा, “देखा सखी सरवर का पीरख़ाना गिराया, उसकी सज़ा है| अब फिर पीख़ाना बना लो|”
मंझ बोला, “कुछ परवाह नहीं|” वह ग़रीब हो गया, क़र्ज़दार भी हो गया| क़र्ज़ देनेवालों ने कहा कि या तो क़र्ज़ चुका या गाँव छोड़ दे| लोगों ने कहा कि फिर से सुलतान का पीरख़ाना बना ले, सबकुछ ठीक हो जायेगा| लेकिन भाई मंझ अपने निश्चय पर दृढ़ रहा और गाँव छोड़कर बाहर रहने लगा|
एक लड़की, एक ख़ुद और एक स्त्री! अब ज़मींदारों को और काम भी नहीं आता, बेचारा बाहर से घास लाता, उसे बेचकर पैसे कमाता और गुज़ारा करता| जब कुछ दिन बीत गये, तो गुरु साहिब ने अपने एक शिष्य को भाई मंझ के नाम एक चिट्ठी देकर भेजा और कहा कि इस चिट्ठी की भेंट बीस रुपये हैं| अगर मंझ रुपये दे दे तो चिट्ठी दे देना| चिट्ठी दिखायी और गुरु साहिब का हुक्म सुनाया| भाई मंझ बड़ा ख़ुश हुआ, लेकिन पास कुछ नहीं था| औरत से सलाह की| औरतों के हाथ, कान, नाक में कुछ ज़ेवर होता है| कुछ लड़की की चूड़ियाँ, कुछ औरत की चूड़ियाँ और अन्य ज़ेवर वग़ैरा इकट्ठे किये और सुनार के पास ले गया| उसने कहा कि बीस रुपये का माल है| भाई मंझ ने कहा कि मुझे बीस रुपये दे दे| सुनार से बीस रुपये लेकर शिष्य को दे दिये और चिट्ठी ले ली| चिट्ठी को कभी माथे पर रखता, कभी आँखों से लगाता, कभी चूमता, कभी छाती से लगाता|
एक दो साल इसी तरह बीत गये| एक दिन फिर गुरु साहिब ने एक शिष्य को एक और चिट्ठी देकर भेजा और कहा कि इसकी भेंट पच्चीस रुपये हैं| देखो किस शिष्य का हौसला है कि ऐसी तकलीफ़ें बरदाश्त करे! अब मंझ सोचने लगा कि पच्चीस रुपये कहाँ से लाऊँ, पास कुछ था नहीं| किसी समय भाई मंझ के गाँव का चौधरी उसकी लड़की का रिश्ता माँगता था, लेकिन भाई मंझ ने मन कर दिया था कि यह रिश्ता मेरे मुक़ाबले का नहीं| अब मंझ ने सोचा कि उससे मिलना चाहिए| भाई मंझ की स्त्री चौधरानी के पास गयी और कहा कि अच्छा यह रिश्ता हम ले लेंगे, लेकिन अभी हमको पच्चीस रुपये की ज़रूरत है, वह दे दो| चौधरानी ने रुपये दे दिये और वह लेकर आ गयी| शिष्य को रुपये देकर चिट्ठी ले ली और पहले की तरह उस चिट्ठी से प्यार किया|
गुरु साहिब को अभी और परीक्षा लेनी थी| एक शिष्य के हाथ सन्देश भेजा कि भाई मंझ दरबार में आ जाये| भाई मंझ सबकुछ छोड़कर परिवार को साथ लेकर दरबार में आ गया| लंगर के बर्तन साफ़ करना, लंगर के लिए लकड़ियाँ लाना उनका रोज़ का काम था| कुछ दिन के बाद गुरु साहिब ने पूछा, “भाई मंझ रोटी कहाँ से खाता है?” शिष्यों ने कहा कि सारी संगत लंगर में खाती है, वह भी वहीं से खाता है| तब गुरु साहिब ने कहा, “यह तो मज़दूरी हो गयी, सेवा तो न रही|” भाई मंझ की स्त्री ने सुना और जाकर पति से कहा कि गुरु साहिब ने यह वचन कहे हैं| मंझ ने कहा कि कल से कोई और उपाय करूँगा|
अब वह आधी रात को जंगल में जाता, लकड़ियाँ काटकर लाता और बाज़ार में बेचकर उससे गुज़ारा करता| बाक़ी वक़्त वह और उसका परिवार लंगर में सेवा करता| कैसा सख़्त इम्तिहान है!
एक दिन भाई मंझ जंगल में गया कि आँधी आ गयी| लकड़ियों का बोझ उठाता लेकिन आँधी उठाकर फेंक देती| आख़िर बड़ी मुश्किल से लकड़ियाँ उठाकर आ रहा था कि हवा का तेज़ झोंका आया और वह लकड़ियों समेत एक कुएँ में जा गिरा| अब गुरु बे-ख़बर नहीं होता| इधर यह घटना हुई, उधर गुरु अर्जुन साहिब नंगे पैर दौड़ पड़े और हुक्म दिया कि रस्सी और तख़्ता लाओ|
सारी संगत दौड़ी आयी कि पता नहीं क्या हो गया है| कुएँ पर गये| गुरु साहिब ने एक शिष्य से कहा कि भाई मंझ को आवाज़ दो कि लकड़ियाँ फेंक दो और आप तख़्ता पकड़ ले, हम उसे ऊपर खींच लेंगे| रस्सी और तख़्ता लटका दिये गये, लेकिन भाई मंझ ने कहा कि पहले लकड़ियों को बाहर निकालो, फिर मैं निकालूँगा| शिष्यों ने कहा कि देख! तेरे साथ क्या हुआ है, छोड़ दे गुरु को और निकल आ बाहर| भाई मंझ ने कहा, “गुरु साहिब को कुछ न कहो, इससे मेरा मन दुःखी होता है| पहले लकड़ियाँ निकालो क्योंकि ये गुरु के लंगर के लिए हैं| यदि भीग गयीं तो जलेंगी नहीं|” वैसे ही किया गया|
पहले लकड़ियाँ और फिर आप निकला| इसका नाम है शरण! जब निकला तो गुरु अर्जुन साहिब ने दयाल होकर कहा, “माँग क्या माँगता है? मैं तुझे तीनों लोकों का राज्य दे दूँगा|” उसने कहा, “हे सतगुरु! मुझे तो सिर्फ़ तू ही चाहिए|” यह सुनकर गुरु साहिब ने भाई मंझ को छाती से लगा लिया और वर दे दिया:
मंझ प्यारा गुरु को गुरु मंझ प्यारा|
मंझ गुरु का बोहिथा जग लंघन हारा|
गुरु साहिब ने कहा कि जिसको तू नाम देगा वह सीधा संसार-सागर से पार हो जायेगा|
यह है शरण का फल! लेकिन शरण लेना कठिन है|