मंसूर और फूल की चोट
‘अनलहक़’ जिस का अर्थ है कि मैं ख़ुदा हूँ, कहने पर हज़रत मंसूर को बग़दाद में सूली पर चढ़ाने की सज़ा सुनायी गयी| उस पर ज़ोर डाला गया कि वह ‘अल्लाह हु हक’ कहे, पर मंसूर ने यह कहने से इनकार कर दिया| जब मंसूर को सूली पर चढ़ाने लगे तो हुक्म हुआ कि पहले इसको पत्थर मारे जायें| उसे बग़दाद शहर के चौक में ले जाया गया और लोगों को उसे पत्थर मारने का हुक्म दिया गया| जब लोगों ने पत्थर मारे, वह चुपचाप खड़ा रहा, उफ़ तक न की| शेख़ शिबली मंसूर का दोस्त भी था और उसके राज़ से भी वाक़िफ़ था| उसने सोचा कि अगर मैंने पत्थर मारा तो उचित नहीं, क्योंकि यह फ़क़ीर है और अगर शहरवालों अर्थात मुसलमानों के कर्मकाण्ड में विश्वास रखनेवालों का ख़याल करूँ तो मारना ही पड़ेगा|
आख़िर उसने फूल मारा| जब मंसूर को फूल लगा तो वह कराह उठा, “हाय!” शिबली ने पूछा कि तूने हाय क्यों की? मंसूर ने उत्तर दिया कि तू मेरे राज़ को जानता था, लोग नहीं जानते थे, इसलिए मुझे तेरे फूल की चोट लोगों के पत्थरों की चोट से भी ज़्यादा लगी|
जब उसे सूली पर चढ़ाने लगे तो पहले उसके हाथ काट दिये गये| उसने कहा मुझे इन हाथों का कोई फ़िक्र नहीं| मेरे पास वे हाथ हैं कि एक यहाँ और किंगराए अर्श* पर है| फिर पैर काट दिये गये| वह बोला कि मेरे पास वे पैर हैं कि एक यहाँ और एक परमात्मा की दरगाह में है| फिर आँखें निकाल ली गयीं तो कहा ये आँखें फ़ना (नाश्वान्) हैं; मेरे पास वे आँखें हैं जो बका (अविनाशी) को देखती हैं| जब ज़बान काटने लगे तो बोला कि ज़रा ठहर जाओ| फिर बोला, “हे मालिक! जिस तरह कुम्हार मिट्टी के बर्तन को बाहर से टकोरता है, लेकिन नीचे हाथ रखकर अन्दर से सँभालता है और बाहर से चोट मारता है, मुझे उम्मीद नहीं थी कि मैं इस इम्तिहान में पास हो जाऊँगा| पर हे मुर्शिद! तेरी कृपा से मैं अब पूरा उतरा हूँ, शुक्र है!! शुक्र है!! शुक्र!! आओ जल्लादो, ज़बान भी काट लो|”
जिस तालिब को मुर्शिद की दया से अन्दर दर्शन हो जायें, क्या वह दुनिया से डरेगा? हरगिज़ नहीं, कभी नहीं!
कहा भइओ जउ भइओ छिनु छिनु||
प्रेमु जाइ तउ डरपै तेरी जनु|| (गुरु रविदास)