मन ख़ुदायम, मन ख़ुदा
कबीर साहिब कहते हैं कि मालिक के नाम का सुमिरन ऐसी एकाग्रता से करना चाहिए जैसे एक कीड़ा भृंगी की आवाज़ में अपने आप को लीन करके उसी का ही रूप धारण कर लेता है| इसी प्रकार अगर आप मालिक के नाम का सुमिरन करोगे तो मालिक में समा जाओगे, मालिक का रूप हो जाओगे| जो ख़ुदा के नूर में मिलकर नूर हो गया, वह मनुष्य न रहा| जिसका ध्यान करोगे उसी का रूप हो जाओगे|
हज़रत बायज़ीद बुस्तामी भी ख़ुदा की याद में अपने आपको इतना भूल गये कि जब उन्होंने अपनी ओर देखा तो ख़ुदा के सिवाय कुछ न दिखायी दिया| मस्ती की हालत में पुकार उठे, ‘मन ख़ुदायम, मन ख़ुदायम, मन ख़ुदा’ कि मैं ख़ुदा हूँ, मैं ख़ुदा हूँ, मैं ख़ुदा हूँ|
जो मुरीद पास बैठे थे, यह कलाम सुनकर हैरान हो गये| जब पीर आम स्थिति में आये तो उनसे पूछा, “हज़रत, आप कहते थे कि ख़ुदा देह में नहीं आता| मगर आप कह रहे हो कि मैं ही ख़ुदा हूँ, क्या आप देह नहीं हैं?” बायज़ीद ने कहा कि यह अपमानजनक बात मैं कैसे कह सकता हूँ, किसी और ने कही होगी, अगर दुबारा कहूँ तो इसके लिए शरीअत में जो सज़ा मुक़र्रर हो, दे देना| मुरीदों ने कहा, “बहुत अच्छा|” तीन-चार दिन के बाद, पीर जी फिर वही खेल रचाया और कहा, ‘मन ख़ुदायम, मन ख़ुदायम, मन ख़ुदा|’
जब मुरीदों ने सुना तो उठ दौड़े और तलवार, छुरी आदि शस्त्रों से उनको मारना चाहा| मौलाना रूम ने मसनवी में लिखा है कि जिन लोगों ने सिर पर वार किया उनके सिर कट गये| जिन्होंने हाथों पर वार किया, उनके हाथ कट गये और पीर जी मस्ती में झूमते हुए कहते रहे, ‘मन ख़ुदायम, मन ख़ुदायम, मन ख़ुदा’|
जब पीर फिर आम हालत में आये तो बाक़ी मुरीद पूछने लगे, “आप कत्ल होने से कैसे बच गये?” हज़रत बायज़ीद ने मुस्कराते हुए कहा, “जो ख़ुदा के ज़िक्र और प्यार में रँगे जाते हैं, वे उसी का रूप हो जाते हैं| ऐसे लोगों को तलवारों से नहीं मारा जा सकता|”