किसका सेवक?
गुरु गोबिन्द सिंह जी का दरबार लगा हुआ था| सिक्खी का मज़मून चल रहा था| गुरु साहिब ने कहा कि गुरु का शिष्य कोई-कोई है, बाक़ी सब अपने मन के ग़ुलाम हैं या स्त्री और बच्चों के ग़ुलाम हैं|
एक शिष्य को आज़माते हुए, जो अपने आपको बड़ा भक्त ज़ाहिर करता था, कहने लगे कि हमें कपड़े के थान की ज़रूरत है| शिष्य ने अगले दिन दरबार में हाज़िर करने का वायदा किया|
जब माथा टेककर वह शहर गया और कपड़ा ख़रीदकर घर लौटा, तो उसकी स्त्री ने पूछा, “यह कपड़ा कैसा है?” उसने उत्तर दिया कि गुरु साहिब के लिए ख़रीदा है| कल इसे दरबार में दाना है| वह बोली, “यह तो मैं नहीं दूँगी| बाल-बच्चों के लिए ज़रूरत है| कपड़ा बहुत अच्छा है, गुरु साहिब के लिए और ले आना|” उसने कहा, “दुकानदार के पास तो यही एक थान था| इसके साथ का और कपड़ा नहीं है|” इस पर वह बोली, “तब तो मैं इसको ज़रूर रखूँगी|” उसने पूरी कोशिश की, लेकिन स्त्री के सामने उसकी एक न चली| उसने यह कहकर टाल दिया कि गुरु साहिब को क्या पता है? कल जब पूछेंगे तो कह देना कि अभी पसन्द का कपड़ा नहीं मिला| वह चुप हो गया|
अगले दिन जब दरबार में गया, तब गुरु साहिब ने पूछा, “कपड़ा लाये हो?” बोला, “जी नहीं! अभी नहीं मिला|”
शिष्य अपने गुरु को तन और धन दोनों सौंप देता है लेकिन मन का सौंपना बहुत मुश्किल है| अगर गुरु को मन सौंप दे तो गुरुमुख बन जाये|
मनु बेचै सतिगुर कै पासि|| तिसु सेवक के कारज रासि||
कुटुम्ब परिवार मतलब का| बिना धन पास नहिं आई|| (स्वामी जी महाराज)