दो ख़ुदा
जब बड़े महाराज जी फ़ौज में इंजीनियर थे तो एक बार उनका तबादला रावलपिण्डी हो गया| वहाँ का इंचार्ज एक एस. डी. ओ. था| उनका रोज़ का नियम था कि वे दोनों शाम को इकट्ठे काम बन्द करके जाते थे| एक दिन की बात है, छुट्टी का वक़्त हो चुका था कि आपका क्लर्क काग़ज़ पर दस्तख़त करवाने के लिए आ गया| एस. डी. ओ. कहने लगा, “चलो भाई! कल कर लेंगे|” आपने कहा, “मुझे दस्तख़त कर लेने दो|” वह बोला, “छोड़ो भी, ख़ुदा आप ही करेगा|” आपने पूछा, “कौन-सा ख़ुदा?” उसने कहा, “क्या ख़ुदा दो हैं?” आपने कहा कि हाँ| उसकी समझ में तो न आया लेकिन चुप हो गया|
घर आते हुए सारे रास्ते सोचता आया| रात को एक फ़क़ीर मिला, जिसने अच्छी तरह समझा दिया कि दुनिया का ख़ुदा और है, सन्तों का खुदा और है| जब सवेरे दफ़्तर आया तो बोला कि आपकी कल की बात में राज़ है| आपने पूछा कि क्या राज़ खोल दूँ? उसने कहा, “नहीं, मेरी तसल्ली हो गयी है|”
सो जो दुनिया का ख़ुदा है, वह काल है और जो गुरमुखों का ख़ुदा है, वह त्रिलोकी (स्थूल, सूक्ष्म और कारण मण्डल) से आगे है, वह दयाल है|
खंड पताल दीप सभि लोआ|| सभि कालै वसि आपि प्रभि कीआ||
निहचलु एकु आपि अबिनासी सो निहचलु जो तिसहि धिआइदा||
(गुरु अर्जुन देव जी)