डल्ला की परीक्षा
ज़िक्र है कि मुसलमानों की हुकूमत के दिनों में एक ऐसा समय आया जब गुरु गोबिन्द सिंह जी को मजबूरन आनन्दपुर छोड़ना पड़ा| डल्ला नामक बराड़ क़ौम का एक सरदार गुरु साहिब से मिला और बोला, “महाराज! अगर आप हमें ख़बर करते तो हम आकर मुसलमानों से मुक़ाबला करते, आपको आनन्दपुर नहीं छोड़ना पड़ता|” गुरु साहिब ने उसे कहा, “जो मालिक का हुक्म|” डल्ला ने कहा, “नहीं जी, आप बताते तो सही|”
उन दिनों तोड़ेदार बन्दूक़ें होती थीं| इसी तरह पत्थर कला बन्दूक़ें भी होती थीं जो सबसे अच्छी समझी जाती थीं| उसका घोड़ा पहले पत्थर पर पड़ता था जिसमें से आग निकलती थी, फिर गोली चलती थी| एक सिक्ख, गुरु साहिब के पास एक बड़ी अच्छी नयी क़िस्म की ‘पत्थर कला’ बन्दूक़ बनाकर लाया| गुरु साहिब ने कहा, किस पर आज़माएँ? इसके आज़माने के लिए आदमी ही ठीक रहेगा|” फिर डल्ला को कहा, “कोई आदमी खड़ा करो जिस पर बन्दूक़ आज़माएँ|” जब डल्ला ने अपने आदमियों से पूछा तो कोई भी मरने के लिए तैयार नहीं था| चाहे गुरु साहिब ने मारना किसी को नहीं था सिर्फ़ आज़माना ही था लेकिन कोई न आया| जब कोई न आया तो गुरु साहिब ने कहा, “डल्ला! तू ही आ|” डल्ला बोला, “जी, मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं, वे पीछे क्या करेंगे!” गुरु साहिब ने कहा, “बस? ऐसे ही कहता था कि ख़बर करते तो आनन्दपुर न छोड़ना पड़ता?” डल्ला शर्मिन्दा हो गया|
फिर गुरु साहिब ने हुक्म दिया कि अच्छा जाओ और घोड़ों के तबेले में मेरा जो आदमी मिले उससे कहना कि गुरु साहिब के पास एक बन्दूक आयी है, उसके निशाने के लिए एक आदमी चाहिए| जब डल्ला ने जाकर कहा तो जो जिस हालत में था उसी तरह उठ भागा, कोई बालों में कंघी करता भागा, कोई साफ़ा बाँधता हुआ भागा तो कोई धोती पहनता हुआ| हरएक आदमी दूसरों की कारगुज़ारी बताकर कि यह घोड़ों की बड़ी सेवा करता है, इसने चमकौर के युद्ध में बड़ी मदद की थी, इसने अमुक काम किया था या अमुक काम जा जानकार है, यही कहता कि इसको न मारो बल्कि मुझे निशाना बनाओ| इसके बाद गुरु साहिब ने सबको एक लाइन में एक-दूसरे के आगे-पीछे खड़ा करके बन्दूक़ की गोली ऊपर से निकाल दी| मारना तो किसे था, सिर्फ़ इम्तिहान लेना था| डल्ला बहुत पछताया और बोला “अगर मुझे पता होता कि गुरु साहिब ने सिर्फ़ आज़माना ही था, मारना नहीं था, तो मैं भी अपने आपको पेश कर देता|”
इम्तिहान में कोई-कोई ही पास होता है| मालिक कभी किसी का इम्तिहान न ले|
मैं तेरी चितौनियों में उलझा हुआ हूँ, हे प्रभु! मुझे शर्मिन्दा न होने
दे| जब तू मेरी सूझ बढ़ायेगा, तब मैं तेरे हुक्म अनुसार चलूँगा| (साम्ज़)