मेरे एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर
मेरा जन्म केरल के एक छोटे-से गांव वायनाड में हुआ था। मेरे पिता काॅफी के एक बगीचे में दैनिक मजदूरी का काम करते थे। तमाम पिछड़े गांवों की तरह मेरे गांव में भी सिर्फ एक ही प्राइमरी स्कूल था। हाई स्कूल करने के लिए बच्चों को गांव से चार किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता था। बचपन में मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता था, इसलिए स्कूल के बाद मैं पिता के पास बगीचे में चला जाता था। पढ़ाई से बेरूखी के कारण मैं कक्षा छह में फेल हो गया।
मेरे पिता भी मुझे पढ़ाने के इच्छुक नहीं थे, मैंने पढ़ाई छोड़ दी और अपने पिता के साथ बगीचे में काम पर जाने लगा। भले ही मैंने पढ़़ाई छोड़ दी थी, पर मुझे यह पता था कि मैं गणित में अच्छा था। मेरी इसी खूबी को मेरे गणित के अध्यापक जानते थे। उन्होंने मेरे पिता से बात करके मुझे दोेबारा स्कूल जाने के लिए मना लिया। उस वक्त मेरे अध्यापक ने मुझसे सवाल किया था कि ‘तुम क्या बनना चाहते हो कुली या एक अध्यापक?’ इस सवाल ने मुझे एहसास कराया कि स्कूल छोड़कर मैं गलती कर रहा था। उन्होंने मेरे कमजोर विषयों पर विशेष ध्यान दिया।
इसी मेहनत का नतीजा रहा कि मैंने सभी अध्यापकों को चैंकाते हुए कक्षा सात में पहला स्थान हासिल किया। उसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। हाई स्कूल में टाॅप करने के बाद मेरा उस वक्त का मकसद अपने गणित अध्यापक जैसा बनना था, क्योंकि वह मेरे रोल माॅडल थे। उच्च शिक्षा के लिए कोझिकोड जाने के फैसले के वक्त भी मेरे पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे इसका खर्चा उठा सकें। पिता के एक दोस्त ने कोझिकोड में किसी तरह मेरे रहने-खाने का इंतजाम किया। गांव से होने के कारण मेरी अंग्रेजी भी बुरी थी। मेरे लिए काॅलेज के सभी लेक्चर को समझना मुश्किल होता था, क्योंकि वे सारे अंग्रेजी में होते थे। मेरे एक दोस्त ने इसमें मेरी मदद की और मेहनत के दम पर मैंने यहां भी अच्छे अंक हासिल किए।
इंजीनियरिंग करने के बाद मुझे बंगलूरू में अमेरिका की प्रतिष्ठित मोबाइल कंपनी में नौकरी मिल गई। कंपनी ने एक प्रोजेक्ट के लिए मुझे आयरलैंड भेजा, जहां मैंने डेढ़ साल तक काम किया। बाद में मुझे दुबई के एक बैंक में प्रतिमाह एक लाख रूपये से ज्यादा वाली नौकरी मिल गई। उस वक्त मेरे पिता ने तमाम तरह के कर्ज ले रखे थे, जो लगभग एक लाख के आसपास था। सारे कर्ज चुकाने के लिए मैंने अपना पहला वेतन पिता के पास भेजा। वह विश्वास नहीं कर पा रहे थे, कि मेरी एक महीने की कमाई उनके जीवन भर के कर्ज से ज्यादा थी।
मैं 2003 में बंगलूरू लौट आया। मैं भारत लौटकर आगे की पढ़ाई करके समाज को कुछ वापस लौटाना चाहता था। मेरे लिए अपनी नौकरी छोड़ना काफी मुश्किल था। मैंने गेट की परीक्षा में अच्छा स्कोर किया और आईआईएम बंगलूरू से एमबीए किया। पढ़ाई के साथ-साथ मैं छुट्टी वाले दिन अपने चेचेरे भाइयों की किराने की दुकान पर जाता था। वहां मैंने देखा कि कुछ महिलाएं इडली और डोसा बनाने के लिए बैटर (आटे का घोल) खरीद कर ले जाती हैं। यहीं से मेरे दिमाग में इसका बिजनेस करने का आइडिया आया। 25,000 रूपये से अपना बिजनेस शुरू करने के बाद आज मेरी कंपनी 100 करोड़ रूपये का टर्नओवर पार कर चुकी है। मेरा यही मानना है कि यदि आपके पास कुछ नया शुरू करने का जुनून है, तो उसे तुरंत कर डालिए।
प्रदीप कुमार सिंह, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक
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