हमें प्रभु सम्मत व पवित्र कर्म करते हुए अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करना है!
हमें अपनी आत्मा का दीया जलाना है!
एक कमरे में अंधेरा था। जब उसमें एक व्यक्ति गया तो उसे यह पता ही नहीं था कि उस कमरे मंे क्या-2 रखा है। उस कमरे में कही कुर्सी रखी है तो कहीं मेज रखी है। तो वह टक्टर खाता हुआ, धक्का खाता हुआ, टो-टोकर चलता रहता है। लेकिन जैसे ही किसी ने उस कमरे में लाइट की स्वीच आॅन की उस व्यक्ति को कमरे में रखी हुई सभी चीजें दिखाई देने लगती है। इस प्रकार बल्ब के रूप में भौतिक दीया जो जलता है उससे हम यह प्रेरणा लेते हैं कि हमारा जो आत्मा का दीया है वो जले ताकि हमें दिखाई दे कि दुनिया है क्या? इसके लिए परमपिता परमात्मा समय-समय पर अपने दिव्य शिक्षकों को इस पृथ्वी पर अपना दिव्य ज्ञान देने के लिए भेजते रहते हैं।
दिव्य शिक्षक हमें परमात्मा की शिक्षा देने के लिए आते हैं:
जो शिक्षक भगवान के द्वारा भेजा जाता है वो मनुष्य को शिक्षा देने के लिए भेजा जाता है। कौन सी शिक्षा? वह शिक्षा जिसके ज्ञान से मनुष्य अपने मृत्यु के समय वे पवित्र कर्म करता हुआ, स्वीकृति कर्म करता हुआ और पूर्ण विरक्ति के साथ उध्र्वगमन करें। जो आत्मा है वो उध्र्वगमन करती है यानि वे ऊपर की ओर जाती है। इस दुनिया में जो कुछ भी है उससे भी ऊपर जाती है। तो अगर हम किसी भी दिव्य शिक्षक को मानते हैं, उसके आने का जो लक्ष्य है, चाहे राम हों, चाहे कृष्ण हों, चाहे मोहम्मद साहब हों, चाहे महात्मा बुद्ध हों, चाहे महावीर स्वामी हों, चाहे गुरुनानक देव जी हों, चाहे ईसा मसीह हों, चाहे इस युग के कल्कि अवतार हों, सबका लक्ष्य एक ही रहा है कि वह मनुष्यों को ट्रेनिंग दें कि वे मृत्यु के समय कैसे जायें?
हमें किसी भी चीज से मोह नहीं करना है:
मृत्यु के समय हमें मोह नहीं करना है कि मेरी अलमारी में सोने के कंगन रखे हैं। मेरी अलमारी मे मेरा सोने का हार रखा है। मरने के समय याद आ रहा है कि पता नहीं इन चीजों को कौन ले जायेगा। चूड़ी पता नहीं कौन ले जायेगा। तो हमें पहले से ही अपनी वसीयत करके रख देना चाहिए। इस वसीयत में लिख दो कि मेरा जो माला है वह बहू को दे देना। मेरी चूड़िया बेटियों को दे देना। इस तरह की वसीयत हमें पहले से ही कर देनी चाहिए। मान लो मृत्यु हो गई और मृत्यु वहां हुई जैसे कि यहां से हवाई जहाज से जा रहे थे रास्ते में हवाई जहाज गिर पड़ा और मृत्यु हो गई। तो जो अंतिम सांस जो आयेगी वो इस चीज की नहीं आयेगी कि मेरा हार कौन लेगा, मेरा कड़ा कौन लेगा। अंतिम संास आयेगी हे भगवान! पूर्ण विरक्ति के साथ मैं इस दुनिया से जा रहा हूँ। तो आज ही हम अपनी वसीयत कर दें कि मेरे कपड़े किसको दिये जायें। मेरी माला किसको दी जाये। हमारा मकान किसको दिया जाये। हमारी दुकान किसको दी जाये आदि।
अपने जीवन के अंतिम समय में हमें परमात्मा का ध्यान करना चाहिए:
एक व्यक्ति के चार बेटे थे। उस व्यक्ति ने अपने बेटों का नाम राम, श्याम, मनमोहन एवं हरि प्रसाद रखा था। जब उनका अंतिम समय आया तो वेे अपने सभी बेटों का नाम लेकर अपने पास बुलाने लगे। जब सभी बच्चे उनके पास आ गये तो वे नाराज हो गये कि तुम लोग अभी घर पर ही हो, दुकान नहीं खोली। इस प्रकार उन्होंने अपने बच्चों को नाम भगवान के नाम पर तो रख लिया, उनका अंतिम दिन भी आ गया लेकिन उनका दिमाग इसी में रह गया कि दुकान क्यों नहीं खुली? अंतिम समय में तो भगवान का नाम लो। राम-नाम जपो। सत्य बोलो।
भगवान ने जिस काम को करने को कहा है, वही सद्कर्म हैं:
कोई व्यक्ति गलत काम करें तो उसे करने दीजिए। हमें तो अपने जीवन में केवल पवित्र कार्य ही करना है। हमें स्वीकृति कर्म ही करने चाहिए। गीता में हमें बताया गया है कि कौन से कर्म हमें नहीं करना है। भगवद्गीता में कहा गया है कि जो भगवान ने कहा है कि ये काम करो वो सद्कर्म हो गये और जो उन्होनें कहा है कि यह नहीं करो वो दुष्ट कर्म हो गये। भगवान ने कहा कि अपने रिश्तेदारों को, अपने गुरु को, अपने भीष्म पितामह को मार डालो। अर्जुन की बुद्धि कहती है यानि इंसान की बुद्धि कहती है मारने से गलत होता है। वह अपने सहज भाव से भगवान कृष्ण से निवेदन करता है कि मैं इन्हें मार नहीं सकता। मैं भले ही जंगल चला जाऊगां लेकिन मैं इन्हें नहीं मारूगां।
परमात्मा की कृपा से अर्जुन के मोह का नाश हो गया:
भगवान 18 अध्याय तक अर्जुन को स्वीकृति कर्म करने के लिए राजी करते रहें। स्वीकृति कर्म वो कर्म हैं जिसकी कि कृष्ण दुहाई दे रहे हंै, वे ही स्वीकृति एवं सद्कर्म है। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम मोह का परित्याग कर दे और मेरी शरण में आ जा। मैं तेरे को सारे पापों से मुक्त कर दूगां और तू शोक मत कर कि तूने अपने भाईयों को मार दिया, तूने अपने गुरू को मार दिया या तूने अपने भीष्म पितामह को मार दिया। अर्जुन अंत में कहता है ‘मोहनाशाः, स्मृतिलब्धा’। हे कृष्ण मेरा मोह अब नष्ट हो गया है और मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है।
मनुष्य की आत्मा और मन का विकास तब होता है जबकि उसके ऊपर कष्ट आते हैं:
मनुष्य की आत्मा और मन का विकास तब होता है जबकि उसके ऊपर कष्ट आते हैं क्योंकि जितना ज्यादा खेत को गहरा खोदा जायेगा, हल चलाया जायेगा, उतना ही बढ़िया उस खेत के बीज की उपज होगी और फसल अच्छी आयेगी। लक्ष्य क्या है? पूर्ण अनासक्ति दुनियाँ से प्राप्त हो। इसके लिए क्या करना है? जैसे खेत में जब हल चलाया जाता है तो उसके अंदर जो खराब पौधे होते हैं या कांटे होते हैं, हल चलाने से वो सब मिट्टी से बाहर निकल आते हैं। इसी तरह से हमारे ऊपर जो कष्ट आते हैं, जो हमारे ऊपर तकलीफे आती हैं, जो हमारी परीक्षायें ली जाती हैं, उससे हम इस दुनिया से विरक्त होते हैं। हमें दुनिया में भौतिक सुख तो मिलेगा नहीं और अगर मिलेगा भी तो वह क्षणिक ही होगा। इसलिए हमारा दृष्टिकोण दिव्य प्रसन्नता का होना चाहिए। गुणों में प्रसन्नता का होना चाहिए। प्रभु भक्तों के साथ रहने में प्रसन्नता होना चाहिए।
हमें रोज-रोज अच्छे और अच्छे बनते जाना है:
इस प्रकार प्रभु के द्वारा जो दिव्य शिक्षक भेजे जाते हैं, उनके भेजने का एक ही लक्ष्य होता है कि वे मानवमात्र को शिक्षित करें कि वो प्रभु सम्मत कर्म करते हुए, पवित्र कर्म करते हुए अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करें अर्थात् मृत्यु को प्राप्त करें। मृत्यु ही निश्चित है। जो मृत्यु उसे प्राप्त होगी। यह परिवर्तन का समय है इसलिये हमें रोज-रोज अच्छे और अच्छे बनते जाना है। रोज-रोज परमपिता परमात्मा की ओर बढ़ते जाना है ताकि सारे जीवन पवित्र कर्म करते हुए, सारे जीवन स्वीकृति कर्म करते हुए और पूर्ण विरक्ति के साथ हमारी आत्मा उध्र्वगमन कर परमात्मा की निकटता को प्राप्त करें।
डाॅ. भारती गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-संचालिका,
सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ