सुन्दरकाण्ड 01 (51-60)

सुन्दरकाण्ड
सुन्दरकाण्ड - दोहा 51

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥51॥

व्याख्या: कपटसे वानरका शरीर धारणकर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं| वे अपने हृदयमें प्रभुके गुणोंकी और शरणागतपर उनके स्नेहकी सराहना करने लगे||51||

 

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥

व्याख्या: फिर वे प्रकटरूपमें भी अत्यन्त प्रेमके साथ श्रीरामजीके स्वभावकी बड़ाई करने लगे, उन्हें दुराव (कपट वेष) भूल गया! तब वानरोंने जाना कि ये शत्रुके दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीवके पास ले आये||1||

 

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए॥2॥

व्याख्या: सुग्रीवने कहा – सब वानरो! सुनो, राक्षसोंके अङ्ग-भङ्ग करके भेज दो| सुग्रीवके वचन सुनकर वानर दौड़े| दूतोंको बाँधकर उन्होंने सेनाके चारों ओर घुमाया||2||

 

बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना॥3॥

व्याख्या: वानर उन्हें बहुत तरहसे मारने लगे| वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरोंने उन्हें नहीं छोड़ा| [तब दूतोंने पुकारकर कहा-] जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्रीरामजीकी सौगंध है||3||

 

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोडाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥4॥

व्याख्या: यह सुनकर लक्ष्मणजीने सबको निकट बुलाया| उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसोंको तुरंत ही छुड़ा दिया| [और उनसे कहा -] रावणके हाथमें यह चिट्ठी देना [और कहना -] हे कुलघातक! लक्ष्मणके शब्दों (सँदेसे)-को बाँचो||4||

 

सुन्दरकाण्ड - दोहा 52

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार॥52॥

व्याख्या: फिर उस मुर्खसे जबानी यह मेरा उदार (कृपासे भरा हुआ) सन्देश कहना कि सीताजीको देकर उनसे (श्रीरामजीसे) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया [समझो]||52||

 

तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लंकाँ आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥

व्याख्या: लक्ष्मणजीके चरणोंमें मस्तक नवाकर, श्रीरामजीके गुणोंकी कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिये| श्रीरामजीका यश कहते हुए वे लङ्कामें आये और उन्होंने रावणके चरणोंमें सिर नवाये||1||

 

बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥

व्याख्या: दशमुख रावणने हँसकर बात पूछी-अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? फिर उस विभीषणका समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यन्त निकट आ गयी है||2||

 

करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जब कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥

व्याख्या: मूर्खने राज्य करते हुए लङ्काको त्याग दिया| अभागा अब जौका कीड़ा (घुन) बनेगा (जौके साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर-वानरोंके साथ वह भी मारा जायगा); फिर भालु और वानरोंकी सेनाका हाल कह, जो कठिन कालकी प्रेरणासे यहाँ चली आयी है||3||

 

जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥

व्याख्या: और जिनके जीवनका रक्षक कोमल चित्तवाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात् उनके और राक्षसोंके बीचमें यदि समुद्र न होता तो अबतक राक्षस उन्हें मारकर खा गये होते)| फिर उन तपस्वियोंकी बात बता, जिनके हृदयमें मेरा बड़ा डर है||4||

 

सुन्दरकाण्ड - दोहा 53

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर॥53॥

व्याख्या: उनसे तेरी भेंट हुई या कानोंसे मेरा सुयश सुनकर ही लौट गये? शत्रुसेनाका तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का-सा) हो रहा है||53||

 

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥

व्याख्या: [दूतने कहा -] हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिये (मेरी बातपर विश्वास कीजिये)| जब आपका छोटा भाई श्रीरामजीसे जाकर मिला, तब उसके पहुँचते ही श्रीरामजीने उसको राजतिलक कर दिये ||1||

 

रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना॥
श्रवन नासिका काटै लागे।
राम सपथ दीन्हे हम त्यागे॥2॥

व्याख्या: हम रावणके दूत हैं, यह कानोंसे सुनकर वानरोंने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिये, यहाँतक कि वे हमारे कान-नाक काटने लगे| श्रीरामजीकी शपथ दिलानेपर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा ||2||

 

पूँछिहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी॥3॥

व्याख्या: हे नाथ! आपने श्रीरामजीकी सेना पूछी; सो वह तो सौ करोड़ मुखोंसे भी वर्णन नहीं की जा सकती| अनेकों रंगोंके भालु और वानरोंकी सेना है, जो भयंकर मुखवाले, विशाल शरीरवाले और भयानक हैं||3||

 

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥4॥

व्याख्या: जिसने नगरको जलाया और आपके पुत्र अक्षयकुमारको मारा, उसका बल तो सब वानरोंमें थोड़ा है| असंख्य नामोंवाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं| उनमें असंख्य हाथियोंका बल है और वे बड़े ही विशाल हैं||4||

 

सुन्दरकाण्ड - दोहा 54

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥54॥

व्याख्या: द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान-ये सभी बलकी राशि हैं||54||

 

ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रेलोकहि गनहीं॥1॥

व्याख्या: ये सब वानर बलमें सुग्रीवके समान हैं और इनके-जैसे [एक-दो नहीं] करोड़ों हैं, उन बहुत-सोंको गिन ही कौन सकता है? श्रीरामजीकी कृपासे उनमें अतुलनीय बल है| वे तीनों लोकोंको तृणके समान [तुच्छ] समझते हैं||1||

 

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

व्याख्या: हे दशग्रीव! मैंने कानोंसे ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरोंके सेनापति हैं| हे नाथ! उस सेनामें ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रणमें न जीत सके||2||

 

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।
पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

व्याख्या: सब-के-सब अत्यन्त क्रोधसे हाथ मीजते हैं| पर श्रीरघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते| हम मछलियों और साँपोंसहित समुद्रको सोख लेंगे| नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतोंसे उसे भरकर पूर (पाट) देंगे||3||

 

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका॥4॥

व्याख्या: और रावणको मसलकर धूलमें मिला देंगे| सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं| सब सहज ही निडर हैं; इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लङ्काको निगल ही जाना चाहते हैं||4||

 

सुन्दरकाण्ड - दोहा 55

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम॥55॥

व्याख्या: सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिरपर प्रभु (सर्वेश्वर) श्रीरामजी हैं| हे रावण! वे संग्राममें करोड़ों कालोंको जीत सकते हैं||55||

 

राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर।
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

व्याख्या: श्रीरामचन्द्रजीके तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धिकी अधिकताओ लाखों शेष भी नहीं गा सकते| वे एक ही बाणसे सैकड़ों समुद्रोंको सोख सकते हैं, परन्तु नीतिनिपुण श्रीरामजीने [नीतिकी रक्षाके लिये] आपके भाईसे उपाय पूछा||1||

 

तासु बचन सुनि सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

व्याख्या: उनके (आपके भाईके) वचन सुनकर वे (श्रीरामजी) समुद्रसे राह माँग रहे हैं, उनके मनमें कृपा भरी है [इसलिये वे उसे सोखते नहीं]| दूतके ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा [और बोला -] जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरोंको सहायक बनाया है||2||

 

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

व्याख्या: स्वभाविक ही डरपोक विभीषणके वचनको प्रमाण करके उन्होंने समुद्रसे मचलना (बालहठ) ठाना है| अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है! बस, मैंने शत्रु (राम)-के बल और बुद्धिकी थाह पा ली||3||


सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥

व्याख्या: जिसके विभीषण-जैसा डरपोक मन्त्री हो, उसे जगतमें विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कहाँ? दुष्ट रावणके वचन सुनकर दूतको क्रोध बढ़ आया| उसने मौका समझकर पत्रिका निकाली||4||


रामानुज दीन्ही यह पाती।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

व्याख्या: [और कहा -] श्रीरामजीके छोटे भाई लक्ष्मणने यह पत्रिका दी है| हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिये| रावणने हँसकर उसे बायें हाथसे लिया और मन्त्रीको बुलवाकर वह मूर्ख उसे बचाने लगा||5||

 

सुन्दरकाण्ड - दोहा 56

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥56 (क)॥

व्याख्या: [पत्रिकामें लिखा था -] अरे मूर्ख! केवल बातोंसे ही मनको रिझाकर अपने कुलको नष्ट-भ्रष्ट न कर! श्रीरामजीसे विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेशकी शरण जानेपर भी नहीं बचेगा||56 (का)||

 

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥56 (ख)॥

व्याख्या: या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषणकी भाँति प्रभुके चरण-कमलोंका भ्रमर बन जा| अथवा रे दुष्ट! (श्रीरामजीके बाणरूपी अग्निमें परिवारसहित पतिंगा हो जा (दोनोंमेंसे जो अच्छा लगे सो कर)||56 (ख)||

 

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥

व्याख्या: पत्रिका सुनते ही रावण मनमें भयभीत हो गया, परन्तु मुखसे (ऊपरसे) मुस्कराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा – जैसे कोई पृथ्वीपर पड़ा हुआ हाथसे आकाशको पकड़नेकी चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)||1||

 

कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥

व्याख्या: शुक्र (दूत)-ने कहा-हे नाथ! अभिमानी स्वभावको छोड़कर [इस पत्रमें लिखी] सब बातोंको सत्य समझिये| क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिये| हे नाथ! श्रीरामजीसे वैर त्याग दीजिये ||2||

 

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकउ धरिही॥3॥

व्याख्या: यद्यपि श्रीरघुवीर समस्त लोकोंके स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यन्त ही कोमल है| मिलते ही प्रभु आपपर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदयमें नहीं रखेंगे||3||

 

जनकसुता रघुनाथहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥

व्याख्या: जानकीजी श्रीरघुनाथजीको दे दीजिये| हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिये| जब उस (दूत)-ने जानकीजीको देनेके लिये कहा, तब दुष्ट रावणने उसको लात मारी||4||

 

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपाँ आपनि गति पाई॥5॥

व्याख्या: वह भी [विभीषणकी भाँति] चरणोंमें सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्रीरघुनाथजी थे| प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनायी और श्रीरामजीकी कृपासे अपनी गत (मोनिका स्वरूप) पायी||5||

 

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥

व्याख्या: (शिवजी कहते हैं -) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषिके शापसे राक्षस हो गया था| बार-बार श्रीरामजीके चरणोंकी वन्दना करके वह मुनि अपने आश्रमको चला गया||6||

 

सुन्दरकाण्ड - दोहा 57

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

व्याख्या: इधर तीन दिन बीत गये, किन्तु जड समुद्र विनय नहीं मानता| तब श्रीरामजी क्रोधसहित बोले – बिना भयके प्रीति नहीं होती!||57||

 

लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती।
सहज कृपन सन सुंदर नीती॥1॥

व्याख्या: हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाणसे समुद्रको सोख डालूँ| मूर्खसे विनय, कुटिलके साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूससे सुन्दर नीति (उदारताका उपदेश), ||1||

 

ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

व्याख्या: ममतामें फँसे हुए मनुष्यसे ज्ञानकी कथा, अत्यन्त लोभीसे वैराग्यका वर्णन, क्रोधीसे शम (शान्ति)-की बात और कामीसे भगवानकी कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसरमें बीज बोनेसे होता है (अर्थात् ऊसरमें बीज बोनेकी भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)||2||

 

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा॥
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥3॥

व्याख्या: ऐसा कहकर श्रीरघुनाथजीने धनुष चढ़ाया| यह मत लक्ष्मणजीके मनको बहुत अच्छा लगा| प्रभुने भयानक [अग्नि] बाण सन्धान किया, जिससे समुद्रके हृदयके अंदर अग्निकी ज्वाला उठी||3||

 

मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥

व्याख्या: मगर, साँप तथा मछलियोंके समूह व्याकुल हो गये| जब समुद्रने जीवोंको जलते जाना, तब सोनेके थालमें अनेक मणियों (रत्नों)-को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मणके रूपमें आया||4||

 

सुन्दरकाण्ड - दोहा 58

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥

व्याख्या: [काकभुशुण्डिजी कहते हैं -] हे गरुड़जी! सुनिये, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटनेपर ही फलता है| नीच विनयसे नहीं मानता, वह डाँटनेपर ही झुकता है (रास्तेपर आता है) ||58||

 

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥

व्याख्या: समुद्रने भयभीत होकर प्रभुके चरण पकड़कर कहा -हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिये| हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी – इन सबकी करनी स्वभावसे ही जड है||1||

 

तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहे सुख लहई॥2॥

व्याख्या: आपकी प्रेरणासे मायाने इन्हें सृष्टिके लिये उत्पन्न किया है, सब ग्रन्थोंने यही गाया है| जिसके लिये स्वामीकी जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकारसे रहनेमें सुख पाता है||2||

 

प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥

व्याख्या: प्रभुने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दण्ड) दी; किन्तु मर्यादा (जीवोंका स्वभाव) भी आपकी ही बनायी हुई है| ढोल, गँवार, शुद्र, पशु और स्त्री-ये सब शिक्षाके अधिकारी हैं||3||

 

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई॥4॥

व्याख्या: प्रभुके प्रतापसे मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जायगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)| तथापि प्रभुकी आज्ञा अपेल है (अर्थात् आपकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं| अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ||4||

 

सुन्दरकाण्ड - दोहा 59

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥59॥

व्याख्या: समुद्रके अत्यन्त विनीत वचन सुनकर कृपालु श्रीरामजीने मुस्कराकर कहा – हे तात! जिस प्रकार वानरोंकी सेना पार उतर जाय, वह उपाय बताओ||59||

 

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाई रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥

व्याख्या: [समुद्रने कहा -] हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं| उन्होंने लड़कपनमें ऋषिसे आशीर्वाद पाया था| उनके स्पर्श कर लेनेसे ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रतापसे समुद्रपर तैर जायँगे||1||

 

मैं पुनि उर धरि प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥2॥

व्याख्या: मैं भी प्रभुकी प्रभुताको हृदयमें धारण कर अपने बलके अनुसार (जहाँतक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगा| हे नाथ! इस प्रकार समुद्रको बँधाइये, जिससे तीनों लोकोंमें आपका सुन्दर यश गाया जाय||2||

 

एहि सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥

व्याख्या: इस बाणसे मेरे उत्तर तटपर रहनेवाले पापके राशि दुष्ट मनुष्योंका वध कीजिये| कृपालु और रणधीर श्रीरामजीने समुद्रके मनकी पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात् बाणसे उन दुष्टोंका वध कर दिया)||3||

 

देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥4॥

व्याख्या: श्रीरामजीका भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया| उसने उन दुष्टोंका सारा चरित्र प्रभुको कह सुनाया| फिर चरणोंकी वन्दना करके समुद्र चला गया||4||

 

सुन्दरकाण्ड - छंद

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना॥
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

व्याख्या: समुद्र अपने घर चला गया, श्रीरघुनाथजीको यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा| यह चरित्र कलियुगके पापोंको हरनेवाला है, इसे तुलसीदासने अपनी बुद्धिके अनुसार गाया है| श्रीरघुनाथजीके गुणसमूह सुखके धाम, सन्देहका नाश करनेवाले और विषादका दमन करनेवाले हैं| अरे मूर्ख मन! तू संसारका सब आशा-भरोसा त्यागकर निरन्तर इन्हें गा और सुन|

 

सुन्दरकाण्ड - दोहा 50

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥50॥

व्याख्या: श्रीरघुनाथजीका गुणगान सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलोंका देनेवाला है| जो इसे आदरसहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन)-के ही भवसागरको तर जायँगे||60||

मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः।

(सुन्दरकाण्ड समाप्त)