बालकाण्ड 07 (351-369)

देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥

सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥

अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं॥

भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥

आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि॥

पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥

जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥

सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना॥

दोहा

देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।

तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥३५१॥

जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥

भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥

पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥

आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥

बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥

कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥

भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू॥

पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥

दोहा

बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।

पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥३५२॥

बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें॥

नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥

उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥

बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई॥

बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥

नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं॥

प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥

देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥

दोहा

चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।

कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥३५३॥

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥

जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥

लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥

बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥

देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू॥

कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू॥

जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई॥

बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥

दोहा

सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।

भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति॥३५४॥

मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥

अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए॥

रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥

प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥

कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू॥

सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥

नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी॥

बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई॥

दोहा

लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।

अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥३५५॥

भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥

सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥

उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं॥

रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥

सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए॥

अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥

देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥

मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी॥

दोहा

घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु॥

मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥३५६॥

मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥

मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई॥

मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥

कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥

बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥

सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥

आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥

जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें॥

दोहा

राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।

सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन॥३५७॥

नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥

घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं॥

पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥

सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई॥

प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥

बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥

बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥

जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे॥

दोहा

कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।

प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥३५८॥

नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम

भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई॥

देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥

पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥

सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥

कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥

मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी॥

बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥

सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥

दोहा

मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।

उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति॥३५९॥

सुदिन सोधि कल कंकन छौरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥

नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥

बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥

दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥

मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥

नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥

करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू॥

अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥

दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥

रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥

दोहा

राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।

जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु॥३६०॥

बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥

सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥

बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥

जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥

आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें॥

प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥

कबिकुल जीवनु पावन जानी॥राम सीय जसु मंगल खानी॥

तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥

छंद– निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो।

रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥

उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।

बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥

सोरठा– सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।

तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥३६१॥

मासपारायण, बारहवाँ विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने

प्रथमः सोपानः समाप्तः।

(बालकाण्ड समाप्त)