अयोध्याकाण्ड 05 (251-300)

तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे॥

देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई॥

यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई॥

हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥

पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं॥

सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥

जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे॥

बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे॥

छंद– लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।

बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥

नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।

तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥

सोरठा– -बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।

जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम॥२५१॥

पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती॥

सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥

लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ॥

सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥

लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई॥

अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥

लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं॥

यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥

दोहा

निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।

नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥२५२॥

कीन्ही मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली॥

केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥

अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी॥

मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ॥

मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता॥

जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥

एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी॥

प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥

दोहा

गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।

बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥२५३॥

बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना॥

धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥

सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू॥

गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी॥

नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु॥

बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला॥

अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई॥

करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें॥

दोहा

राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।

समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥२५४॥

सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू॥

केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥

सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी॥

उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥

भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे॥

जनमु हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता॥

दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना॥

सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥

दोहा

बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।

सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु॥२५५॥

तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं॥

सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥

तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई॥

सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता॥

मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा॥

बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी॥

कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे॥

कानन करउँ जनम भरि बासू। एहिं तें अधिक न मोर सुपासू॥

दोहा

अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।

जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान॥२५६॥

भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू॥

भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥

गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा॥

औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई॥

भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिँ आए॥

प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु॥

बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी॥

सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥

दोहा

सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।

पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥२५७॥

आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ॥

सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥

सब कर हित रुख राउरि राखेँ। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें॥

प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथेँ मानि करौ सिख सोई॥

पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ॥

कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥

तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी॥

मोरेँ जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥

दोहा

भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।

करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥२५८॥

गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी॥

भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥

बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला॥

नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई॥

जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥

राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥

लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥

भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥

दोहा

तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।

कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात॥२५९॥

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥

लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥

पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़ें॥

कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥

मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥

सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥

मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही॥

दोहा

महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।

दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन॥२६०॥

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।

यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा॥

मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली॥

फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली॥

सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू॥

बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू॥

हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा॥

गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥

दोहा

साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।

प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ॥२६१॥

भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥

देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी॥

महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला॥

सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा॥

बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ॥

बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू॥

अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई॥

जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी॥

दोहा

तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।

तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि॥२६२॥

सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी॥

सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू॥

कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी॥

बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू॥

तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी॥

तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे॥

उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई॥

दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई॥

दोहा

मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।

लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥२६३॥

कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी॥

तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ॥

मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥

हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥

तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें॥

राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी॥

तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू॥

ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा॥

दोहा

मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।

सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु॥२६४॥

सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू॥

बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं॥

बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।

सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा॥

सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा॥

लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा॥

आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा॥

हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि॥

दोहा

सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु।

सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु॥२६५॥

सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई॥

भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥

देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ॥

मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं॥

सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू॥

निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना॥

करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका॥

निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा॥

दोहा

कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।

करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ॥२६६॥

कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी॥

गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला॥

अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें॥

मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई॥

पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला॥

यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई॥

जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं॥

देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ॥

दोहा

जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।

मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच॥२६७॥

लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू॥

अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥

जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची॥

सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई॥

स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका॥

यह स्वारथ परमारथ सारु। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु॥

देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥

तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना॥

दोहा

सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।

नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ॥२६८॥

नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई॥

जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥

देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु॥

कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू॥

उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई॥

अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू॥

अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा॥

प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ॥

दोहा

प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।

सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब॥२६९॥

भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥

असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥

चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची॥

जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए॥

करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे॥

दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता॥

सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा॥

बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं॥

दोहा

नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ।

मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ॥२७०॥

कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा॥

जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू॥

रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि॥

भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू॥

नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू॥

समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ॥

नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी॥

बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ॥

दोहा

गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।

चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति॥२७१॥

दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी॥

सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥

धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई॥

घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे॥

दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महीपाला॥

भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा॥

खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा॥

साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे॥

दोहा

सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।

रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु॥२७२॥

गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई॥

अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥

एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ॥

करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी॥

रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी॥

राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी॥

सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा॥

एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू॥

दोहा

गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ।

अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ॥२७३॥

सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी॥

एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन॥

ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी॥

सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं॥

लरिकाइहि ते रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी॥

सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ॥

कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे॥

हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे॥

दोहा

प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।

सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु॥२७४॥

भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा॥

गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं॥

राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू॥

मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही॥

आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती॥

आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे॥

लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन॥

भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि॥

दोहा

आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।

सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु॥२७५॥

बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे॥

सोच उसास समीर तंरगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा॥

बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा॥

केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा॥

बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे॥

आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई॥

सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा॥

भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही॥

छंद– अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।

दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा॥

सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।

तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की॥

सोरठा- -किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।

धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन॥२७६॥

जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥

तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई॥

बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥

राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥

सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू॥

मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए॥

सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी॥

पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू॥

दोहा

दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।

बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात॥२७७॥

जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी॥

हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥

लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका॥

कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं॥

तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ॥

मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई॥

रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू॥

कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना॥

दोहा

तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।

लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार॥२७८॥

कामद मे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा॥

सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा॥

बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला॥

तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू॥

जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई॥

तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई॥

देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे॥

दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना॥

दोहा

सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।

पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार॥२७९॥

एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी॥

दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥

सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू॥

परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥

दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही॥

मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला॥

अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल॥

सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता॥

दोहा

एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु॥

सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु॥२८०॥

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं॥

सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं॥

सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू॥

कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी॥

सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा॥

पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन॥

सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति॥

सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी॥

दोहा

सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।

जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल॥२८१॥

सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा॥

जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी॥

कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू॥

कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता॥

ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें॥

देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी॥

भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी॥

सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी॥

दोहा

लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।

गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु॥२८२॥

ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी॥

राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥

भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई॥

कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे॥

जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा॥

कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।

अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा॥

सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी॥

दोहा

कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।

को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि॥२८३॥

रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई॥

रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन॥

तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी॥

गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीं॥

लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी॥

नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि॥

सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ॥

देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती॥

दोहा

बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।

हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय॥२८४॥

लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता॥

देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी॥

प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं॥

सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी॥

रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै॥

रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू॥

अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल॥

यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा॥

दोहा

अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ॥

सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ॥२८५॥

प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥

तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥

जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई॥

लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की॥

उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू॥

सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा॥

चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु॥

मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥

दोहा

सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।

धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि॥२८६॥

तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥

पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥

जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी॥

गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे॥

पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी॥

पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई॥

कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं॥

लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ॥

दोहा

बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि।

कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि॥२८७॥

सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू॥

मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥

सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि॥

धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥

सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही॥

बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद॥

भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती॥

समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू॥

दोहा

निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।

कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि॥२८८॥

अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी॥

भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥

बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ॥

बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥

देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥

भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की॥

परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥

साधन सिद्ध राम पग नेहू॥मोहि लखि परत भरत मत एहू॥

दोहा

भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।

करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ॥२८९॥

राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती॥

राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥

गे नहाइ गुर पहीं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई॥

नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी॥

सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू॥

उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा॥

अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ॥

तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा॥

दोहा

प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।

तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम॥२९०॥

सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥

जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम पेम परधानू॥

तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं॥

राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें॥

आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ॥

करि प्रनाम तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए॥

राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए॥

महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई।

दोहा

ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।

तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल॥२९१॥

सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥

सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाही॥

रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना॥

हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई॥

तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी॥

समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा॥

भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे॥

तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ॥

दोहा

राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु॥

संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु॥२९२॥

सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥

प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥

कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू॥

सिसु सेवक आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥

एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥

छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥

स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥

दोहा

राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।

सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि॥२९३॥

भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥

सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥

ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥

भूप भरत मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥

सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥

देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥

राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥

सब कोउ राम पेममय पेखा। भउ अलेख सोच बस लेखा॥

दोहा

रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज।

रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥२९४॥

सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥

फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥

बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी॥

मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥

बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥

सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी॥

भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥

अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥

दोहा

सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु॥

रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥२९५॥

करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥

गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥

समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा॥

जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥

तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू॥

सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥

बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू॥

राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई॥

दोहा

राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।

सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत॥२९६॥

सभा सकुच बस भरत निहारी। रामबंधु धरि धीरजु भारी॥

कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा॥

सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥

भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥

करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे॥

छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥

हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई॥

बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली॥

दोहा

निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।

करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु॥२९७॥

प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अतंरजामी॥

सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥

समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी॥

स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई। मोहि समान मैं साइँ दोहाई॥

प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली॥

जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू॥

राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं॥

सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई॥

दोहा

कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।

दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर॥२९८॥

राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥

कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥

तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए॥

देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥

को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी॥

निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥

सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी॥

पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥

दोहा

यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।

को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥२९९॥

सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥

तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥

देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला॥

बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू॥

कृपा अनुग्रह अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥

राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईं॥

नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥

अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥

दोहा

सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।

आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥३००॥