अयोध्याकाण्ड 02 (101-150)

कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई॥

वेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥

जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥

पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥

केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥

अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥

बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥

दोहा

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।

पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥१०१॥

उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता। सीयराम गुह लखन समेता॥

केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥

पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥

कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥

नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥

बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें॥

फिरती बार मोहि जे देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥

दोहा

बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।

बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥१०२॥

तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥

सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥

पति देवर संग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥

सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥

सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तव प्रभाउ जग बिदित न केही॥

लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥

तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥

तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होपन हित निज बागीसा॥

दोहा

प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।

पूजहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥१०३॥

गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकुला॥

तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥

दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥

नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥

जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥

तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥

सहज सनेह राम लखि तासु। संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू॥

पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥

दोहा

तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ।

सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ॥१०४॥

तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू॥

प्रात प्रातकृत करि रधुसाई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥

सचिव सत्य श्रध्दा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी॥

चारि पदारथ भरा भँडारु। पुन्य प्रदेस देस अति चारु॥

छेत्र अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा॥

सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा॥

संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा॥

चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा॥

दोहा

सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।

बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥१०५॥

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥

अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥

कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़ाई॥

करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥

एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी॥

मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पुजि जथाबिधि तीरथ देवा॥

तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए। करत दंडवत मुनि उर लाए॥

मुनि मन मोद न कछु कहि जाइ। ब्रह्मानंद रासि जनु पाई॥

दोहा

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि।

लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि॥१०६॥

कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥

कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥

सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए॥

भए बिगतश्रम रामु सुखारे। भरव्दाज मृदु बचन उचारे॥

आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू॥

सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू॥

लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हारें दरस आस सब पूजी॥

अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू॥

दोहा

करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।

तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥

सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने॥

तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा॥

सो बड सो सब गुन गन गेहू। जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू॥

मुनि रघुबीर परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं॥

यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी॥

भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए॥

राम प्रनाम कीन्ह सब काहू। मुदित भए लहि लोयन लाहू॥

देहिं असीस परम सुखु पाई। फिरे सराहत सुंदरताई॥

दोहा

राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ।

चले सहित सिय लखन जन मुददित मुनिहि सिरु नाइ॥१०८॥

राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥

मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥

साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए। सुनि मन मुदित पचासक आए॥

सबन्हि राम पर प्रेम अपारा। सकल कहहि मगु दीख हमारा॥

मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे। जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे॥

करि प्रनामु रिषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई॥

ग्राम निकट जब निकसहि जाई। देखहि दरसु नारि नर धाई॥

होहि सनाथ जनम फलु पाई। फिरहि दुखित मनु संग पठाई॥

दोहा

बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।

उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम॥१०९॥

सुनत तीरवासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी॥

लखन राम सिय सुन्दरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥

अति लालसा बसहिं मन माहीं। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं॥

जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने॥

सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई। बनहि चले पितु आयसु पाई॥

सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं॥

तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा॥

कवि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥

दोहा-

सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।

परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥११०॥

राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा॥

मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरे तन कह सबु कोऊ॥

बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥

पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥

कीन्ह निषाद दंडवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥

पिअत नयन पुट रूपु पियूषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥

ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥

राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥

दोहा

तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह।

राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेँइँ कीन्ह॥१११॥

पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥

चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥

पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता॥

राज लखन सब अंग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें॥

मारग चलहु पयादेहि पाएँ। ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ॥

अगमु पंथ गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥

करि केहरि बन जाइ न जोई। हम सँग चलहि जो आयसु होई॥

जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥

दोहा

एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन।

कृपासिंधु फेरहि तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन॥११२॥

जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं॥

केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥

जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं। तिन्ह समान अमरावति नाहीं॥

पुन्यपुंज मग निकट निवासी। तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी॥

जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि। सीता लखन सहित घनस्यामहि॥

जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं॥

जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई। करहिं कलपतरु तासु बड़ाई॥

परसि राम पद पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा॥

दोहा

छाँह करहि घन बिबुधगन बरषहि सुमन सिहाहिं।

देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं॥११३॥

सीता लखन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई॥

सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृहकाजु बिसारी॥

राम लखन सिय रूप निहारी। पाइ नयनफलु होहिं सुखारी॥

सजल बिलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन देखि दोउ बीरा॥

बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी। लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी॥

एकन्ह एक बोलि सिख देहीं। लोचन लाहु लेहु छन एहीं॥

रामहि देखि एक अनुरागे। चितवत चले जाहिं सँग लागे॥

एक नयन मग छबि उर आनी। होहिं सिथिल तन मन बर बानी॥

दोहा

एक देखिं बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात।

कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिं कि प्रात॥११४॥

एक कलस भरि आनहिं पानी। अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी॥

सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी॥

जानी श्रमित सीय मन माहीं। घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं॥

मुदित नारि नर देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा॥

एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुख चंद चकोरा॥

तरुन तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोटि मदन मनु मोहा॥

दामिनि बरन लखन सुठि नीके। नख सिख सुभग भावते जी के॥

मुनिपट कटिन्ह कसें तूनीरा। सोहहिं कर कमलिनि धनु तीरा॥

दोहा

जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल।

सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल॥११५॥

बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी॥

राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई॥

थके नारि नर प्रेम पिआसे। मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से॥

सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं॥

बार बार सब लागहिं पाएँ। कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ॥

राजकुमारि बिनय हम करहीं। तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं।

स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी। बिलगु न मानब जानि गवाँरी॥

राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इन्ह तें लही दुति मरकत सोने॥

दोहा

स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन।

सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥११६॥

मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम

नवान्हपारायण, चौथा विश्राम

कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥

सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥

तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचित बरबरनी॥

सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥

सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे॥

बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥

खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि॥

भइ मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं॥

दोहा

अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस।

सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस॥११७॥

पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू॥

पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥

दरसनु देब जानि निज दासी। लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी॥

मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं॥

तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी॥

सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी॥

मिटा मोदु मन भए मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने॥

समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा॥

दोहा

लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।

फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥११८॥ý

फिरत नारि नर अति पछिताहीं। देअहि दोषु देहिं मन माहीं॥

सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥

निपट निरंकुस निठुर निसंकू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू॥

रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा॥

जौं पे इन्हहि दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू॥

ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना॥

ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता॥

तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥

दोहा

जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार।

बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार॥११९॥

जौं ए कंद मूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं॥

एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥

जहँ लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मन गोचर बरनी॥

देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी॥

इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा॥

कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए॥

एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिं॥

ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे॥

दोहा

एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर।

किमि चलिहहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर॥१२०॥

नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकई साँझ समय जनु सोहीं॥

मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥

परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचति महि जिमि हृदय हमारे॥

जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा॥

जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं॥

जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय रामु न देखन पाए॥

सुनि सुरुप बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहाँ लगि भाई॥

समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई॥

दोहा

अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिं॥

होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं॥१२१॥

गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू॥

जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥

कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू॥

कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाईं॥

ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहाँ तें आए॥

धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ॥

सुख पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहि के सब भाँति सनेही॥

राम लखन पथि कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई॥

दोहा-

एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत।

जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत॥१२२॥

आगे रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें॥

उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे॥

बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई॥

उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही॥

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता॥

सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ॥

राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई॥

खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं॥

दोहा

जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ।

भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ॥१२३॥

अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ॥

राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई॥

तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी॥

तहँ बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई॥

देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥

राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन॥

सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले॥

खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥

दोहा

सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन।

सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन॥१२४॥

मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा॥

देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥

मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मगाए॥

सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए॥

बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥

तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥

तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा॥

अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥

दोहा

तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ।

मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ॥१२५॥

देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे॥

अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई॥

मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं॥

मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू॥

अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ॥

तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौ कछु काल कृपाला॥

सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥

कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥

छंद– श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।

जो सृजति जगु पालति हरति रूख पाइ कृपानिधान की॥

जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।

सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥

सोरठा– -राम सरुप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।

अबिगत अकथ अपार नेति नित निगम कह॥१२६॥

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥

तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥

तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥

चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥

नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥

राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे॥

तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥

दोहा

पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।

जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥१२७॥

सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने॥

बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥

सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥

जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥

भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे॥

लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥

निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥

तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥

दोहा

जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।

मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥१२८॥

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥

तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥

सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी॥

कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा॥

चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥

मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥

तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना॥

तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥

दोहा

सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।

तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥१२९॥

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥

सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥

कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥

तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥

जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥

जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥

जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥

दोहा

स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।

मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥१३०॥

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥

नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥

राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥

जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥

सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥

सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना॥

करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा॥

दोहा

जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।

बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥१३१॥

एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥

कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥

चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥

सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥

नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तपबल आनी॥

सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥

अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं॥

चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू॥

दोहा

चित्रकूट महिमा अमित कहीं महामुनि गाइ।

आए नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ॥१३२॥

रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥

लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥

नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना॥

चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी॥

अस कहि लखन ठाउँ देखरावा। थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा॥

रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना॥

कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए॥

बरनि न जाहि मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला॥

दोहा

लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।

सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत॥१३३॥

मासपारायण, सत्रहँवा विश्राम

अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला॥

राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥

बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥

करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए॥

चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए॥

आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥

मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं॥

सिय सौमित्र राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं॥

दोहा

जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद।

करहि जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद॥१३४॥

यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥

कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥

तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहि मगु जाता॥

कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई॥

करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे॥

चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥

राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥

प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी॥

दोहा

अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।

भाग हमारे आगमनु राउर कोसलराय॥१३५॥

धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥

धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥

हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा॥

कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी॥

हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई॥

बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥

तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥

हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥

दोहा

बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।

बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥१३६॥

रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा॥

राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥

बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥

एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥

जब ते आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु॥

फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना॥मंजु बलित बर बेलि बिताना॥

सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥

गंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥

दोहा

नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर।

भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर॥१३७॥

केरि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥

फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृगबंद बिसेषी॥

बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि राम बनु सकल सिहाहीं॥

सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या॥

सब सर सिंधु नदी नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना॥

उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू॥

सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते॥

बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई॥

दोहा

चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति।

पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति॥१३८॥

नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी॥

परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी॥

सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन॥

महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥

पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई॥

कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होंहिं सहसानन॥

सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं॥

सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी॥

दोहा

छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु।

करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु॥१३९॥

राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥

छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोरकुमारी॥

नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी॥

सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा॥

परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा॥

सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कंद मूल फर॥

नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई॥

लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥

दोहा-सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु।

रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु॥१४०॥

सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहि सोइ कहहीं॥

कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी।

जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥

सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥

कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी॥

लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं॥

प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु॥

लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता॥

दोहा

रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।

जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत॥१४१॥

जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें॥

सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥

एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी॥

कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥

फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई॥

मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥

राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥

देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥

दोहा

नहिं तृन चरहिं पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।

ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥१४२॥

धरि धीरज तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥

तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता

बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी॥

सोक सिथिल रथ सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥

चरफराहिँ मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥

अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें॥

जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही॥

बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती॥

दोहा

भयउ निषाद बिषादबस देखत सचिव तुरंग।

बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग॥१४३॥

गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥

चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहि छनहिं छन मगन बिषादा॥

सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥

रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥

भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥

अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥

मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहँ कृपन धन रासि गवाँई॥

बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई॥

दोहा

बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति।

जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति॥१४४॥

जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी॥

रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहु॥

लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी॥

सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥

बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी॥

हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी॥

बचनु न आव हृदयँ पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई॥

राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई॥

दोहा

धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।

उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि॥१४५॥

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता॥

पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥

राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई॥

पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही॥

जोइ पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा॥

पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना॥

देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥

सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥

दोहा

ह्रदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु॥

जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु॥१४६॥

एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा॥

बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा॥

पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बाँभन गाई॥

बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवसरु पावा॥

अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें। पैठ भवन रथु राखि दुआरें॥

जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए॥

रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे॥

नगर नारि नर ब्याकुल कैंसें। निघटत नीर मीनगन जैंसें॥

दोहा

सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।

भवन भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु॥१४७॥

अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी॥

सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा॥

दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृहँ गईं लवाई॥

जाइ सुमंत्र दीख कस राजा। अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा॥

आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना॥

लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती॥

लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती॥

राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही॥

दोहा

देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।

सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु॥१४८॥

भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥

सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥

राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥

आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥

सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू॥

राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥

राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥

सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना॥

दोहा

सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।

नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥१४९॥

पुनि पुनि पूँछत मंत्रहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥

करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥

सचिव धीर धरि कह मुदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥

बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥

जनम मरन सब दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा॥

काल करम बस हौहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥

सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥

धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥

दोहा

प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।

न्हाई रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥१५०॥