महाराज मुचुकुन्द – श्रीमद्भगवद्गीता
सूर्यवंशमें महाराज मान्धाता नामके एक परम प्रतापी राजा हुए थे| महराज मुचुकुन्द उन्हींके पुत्र थे| ये सम्पूर्ण पृथ्वीके एकच्छ्त्र सम्राट् थे| बल और पराक्रममें इनकी बराबरी करनेवाला उस समय संसारमें कोई नहीं था| देवता भी इनकी सहायता प्राप्त करनेके लिये लालायित रहा करते थे|
एक बाद असुरों और देवताओंमें भयानक संग्राम हुआ| योग्य सेनापतिके अभावमें देवता असुरोंसे पराजित हो गये| देवताओंने दु:खी होकर महाराज मुचुकुन्दसे अपनी सेना का सेनापतित्व ग्रहण करनेके लिये प्रार्थना की| महाराज मुचुकुन्द देवलोक गये और देव-सेनापतिके रूपमें बहुत समयतक असुरोंसे युद्ध करते रहे| अन्तमें देवताओंकी विजय हुई| बहुत समयके बाद भगवान् शिवके पुत्र श्रीकार्तिकेयजीको देवताओंका सेनापति बनाया गया| तदनन्तर देवराज इन्द्रने महाराज मुचुकुन्दसे कहा – ‘राजन्! आपने हमारी बड़ी सेवा की है| स्त्री, पुत्र, राज्य आदिको छोड़कर आप हमारी रक्षामें बहुत समय व्यतीत कर चुके हैं| पृथ्वीलोकके हिसाबसे यहाँ आपको रहते हुए हजारों वर्ष गुजर गये| अब आपकी राजधानीका कहीं पता नहीं है| आपके परिवारवाले सब कालके गालमें समा गये| आपकी सेवासे हम विशेष प्रसन्न हैं| मोक्षके अतिरिक्त आप हमसे जो कुछ माँगना चाहें, हम देनेके लिये तैयार हैं|’ महाराज मुचुकुन्दको स्वर्गमें इतने दिनोंतक सोनेका मौका नहीं मिला था| इसलिये उन्होंने दीर्घकालके लिये निद्राका वरदान माँगा| उन्होंने देवराजसे कहा कि जो भी मेरी निद्रामें विघ्न डालनेका प्रयत्न करे, वह तत्काल जलकर भस्म हो जाय| देवराज इन्द्रने ‘तथास्तु’ कहकर महाराजको संतुष्ट कर दिया|
महाराज मुचुकुन्द भारतवर्षमें मथुराके संनिकट पहाड़की एक गुफामें आकर सो गये| द्वापरमें भगवान् श्रीकृष्णका अवतार हुआ| भगवान् श्रीकृष्ण कालयवनको मुचुकुन्दकी क्रोधाग्निसे भस्म करानेके उद्देश्यसे उसके सामनेसे छिपकर भागे| कालयवन भी भगवान् का पीछा करते हुए अपनी सेनाको पीछे छोड़कर भागा| भागते-भागते भगवान् सोते हुए मुचुकुन्दकी गुफामें जाकर छिप गये| भगवान् ने उन्हें अपना पीताम्बर ओढ़ा दिया और स्वयं छिपकर तमाशा देखने लगे| कालयवन श्रीकृष्णको खोजते हुए गिफामें आया| महाराज मुचुकुन्दको श्रीकृष्ण समझकर उसने उनके ऊपर लातका प्रहार किया| महाराजकी निद्रा टूट गयी और उनकी दृष्टिके सामने पड़ते ही कालयवन जलकर भस्म हो गया| तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने महाराज मुचुकुन्दको अपना दर्शन दिया| उस समय भगवान् श्रीकृष्णका श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघके समान साँवला था| उनके श्रीअङ्ग रेशमी पीताम्बरसे सुशोभित थे| उनके गलेमें कौस्तुभमणि थी| उनकी चार भुजाएँ थीं और उनका मुखकमल प्रसन्नतासे खिला हुआ था| महाराज मुचुकुन्द भगवान् की वह ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर चकित हो गये| उन्होंने भाव-विभोर होकर भगवान् की स्तुति की और अनन्य भक्तिकी याचना की|
भगवान् श्रीकृष्णने कहा – ‘राजन्! यह कालनेमि नामक असुर था, जो मेरी ही प्रेरणासे तुम्हारी दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया| मैं तुमपर कृपा करनेके लिये ही इस गुफामें आया हूँ| तुमने पहले मेरी बहुत अधिक आराधना की है| तुम्हारी जो भी अभिलाषा हो, मुझसे वर माँग लो|’ मुचुकुन्दने भगवान् से उनकी उपासनाका वरदान माँगा| भगवान् ने कहा – ‘अगले जन्ममें तुम ब्राह्मण बनोगे और मेरी उपासना करके विज्ञानानन्दघन परमात्माको प्राप्त करोगे|’ इस प्रकार मुचुकुन्दको वरदान देकर भगवान् अन्तर्धान हो गये|