श्रीभरत – रामायण

श्रीभरत

श्रीभरतजीका चरित्र समुद्रकी भाँति अगाध है, बुद्धिकी सीमासे परे है| लोक-आदर्शका ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है| भ्रातृप्रेमकी तो ये सजीव मूर्ति थे|

ननिहालसे अयोध्या लौटनेपर जब इन्हें मातासे अपने पिताके सर्वगवासका समाचार मिलता है, तब ये शोकसे व्याकुल होकर कहते हैं – ‘मैंने तो सोचा था कि पिताजी श्रीरामका अभिषेक करके यज्ञकी दीक्षा लेंगे, किन्तु मैं कितना बड़ा अभागा हूँ कि वे मुझे बड़े भइया श्रीरामको सौंपे बिना स्वर्ग सिधार गये| अब श्रीराम ही मेरे पिता और बड़े भाई हैं, जिनका मैं परम प्रिय दास हूँ| उन्हें मेरे आनेकी शीघ्र सुचना दें| मैं उनके चरणोंमें प्रणाम करूँगा| अब वे ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं|’

जब कैकयीने श्रीभरतजीको श्रीराम-वनवासकी बात बतायी, तब वे महान् दुःखसे संतप्त हो गये| इन्होंने कैकेयीसे कहा – ‘मैं समझता हूँ, लोभके वशीभूत होनेके कारण तू अबतक यह न जान सकी कि मेरा श्रीरामचन्द्रके साथ भाव कैसा है| इसी कारण तूने राज्यके लिये इतना बड़ा अनर्थ कर डाला| मुझे जन्म देनेसे अच्छा तो यह था कि तू बाँझ ही होती| कम-से-कम मेरे-जैसे कुलकलंकका तो जन्म नहीं होता| यह वर माँगनेसे पहले तेरी जीभ कटकर गिरी क्यों नहीं!’

इस प्रकार कैकेयीको नाना प्रकारसे बुरा-भला कहकर श्रीभरतजी कौसल्याजीके पास गये और उन्हें सान्त्वना दी| इन्होंने गुरु वसिष्ठकी आज्ञासे पिताकि अंत्येष्टि किया सम्पन्न की| सबके बार-बार आग्रहके बाद भी इन्होंने राज्य लेना अस्वीकार कर दिया और दल-बलके साथ श्रीरामको मनानेके लिये चित्रकूट चल दिये| श्रृंगवेरपुरमें पहुँचकर इन्होंने निषादराजको देखकर रथका परित्याग कर दिया और श्रीरामसखा गुहसे बड़े प्रेमसे मिले| प्रयागमें अपने आश्रमपर पहुँचनेपर श्रीभरद्वाज इनका स्वागत करते हुए कहते हैं – ‘भरत! सभी साधनोंका परम फल श्रीसीतारामका दर्शन है और उसका भी विशेष फल तुम्हारा दर्शन है| आज तुम्हें अपने बीच उपस्थित पाकर हमारे साथ तीर्थराज प्रयाग भी धन्य हो गये|’

श्रीभरतजीको दल-बलके साथ चित्रकूटमें आता देखकर श्रीलक्ष्मणको इनकी नीयतपर शंका होती है| उस समय श्रीरामने उनका समाधान करते हुए कहा – ‘लक्ष्मण! भरतपर सन्देह करना व्यर्थ है| भरतके समान शीलवान् भाई इस संसारमंे मिलना दुर्लभ है| अयोध्याके राज्यकी तो बात ही क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेशका भी पद प्राप्त करके श्रीभरतको मद नहीं हो सकता|’ चित्रकुटमें भगवान् श्रीरामसे मिलकर पहले श्रीभरतजी उनसे अयोध्या लौटनेका आग्रह करते हैं, किन्तु जब देखते हैं कि उनकी रुचि कुछ और है तो भगवान् की चरण-पादुका लेकर अयोध्या लौट आते हैं| नन्दिग्राममें तपस्वी-जीवन बिताते हुए ये श्रीरामके आगमनकी चौदह वर्षतक प्रतीक्षा करते हैं| भगवान् को इनकी दशाका अनुमान है| वे वनवासकी अवधि समाप्त होते ही एक क्षण भी विलम्ब किये बिना अयोध्या पहुँचकर इनके विरहको शान्त करते हैं| श्रीरामभक्ति और आदर्श भ्रातप्रेमके अनुपम उदाहरण श्रीभरतजी धन्य हैं|