सञ्जय – महाभारत
सञ्जयका जन्म सूत जातिमें हुआ था| ये बड़े ही बुद्धिमान, नीतिज्ञ, स्वामिभक्त तथा धर्मज्ञ थे| इसीलिये धृतराष्ट्र इनपर अत्यन्त विश्वास करते थे| ये धृतराष्ट्रके मन्त्री भी थे और उनको सदैव हितकर सलाह दिया करते थे|
जब पाण्डवोंका द्यूतमें दुर्योधनने सर्वस्व हरण कर लिया, तब इन्होंने उसके दुर्व्यवहारकी कड़ी आलोचना करते हुए धृतराष्ट्रसे कहा – ‘महाराज! अब आपके कुलका नाश सुनिश्चित है| भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और विदुरजीने आपके पुत्रको बहुत मना किया, फिर भी उसने अयोनिजा एवं पतिपरायणा द्रौपदीको भरी सभामें अपमानित कर भयंकर युद्धको निमन्त्रण दिया है|’ धृतराष्ट्रने सञ्जयकी बातका अनुमोदन करते हुए अपनी कमजोरीको हृदयसे स्वीकार किया, जिसके कारण वे दुर्योधनके अत्याचारको रोक न सके|
सञ्जय सामनितिके भी बड़े पक्षपाती थे| इन्होंने युद्ध रोकनेकी बड़ी चेष्टा की| ये धृतराष्ट्रकी ओरसे सन्धिचर्चा करनेके लिये उपप्लव्य गये| इन्होंने पाण्डवोंकी सच्ची प्रशंसा करते हुए उन्हें युद्धसे विरत रहनेकी सलाह दी| पाण्डवोंने तो इनकी बात मान भी ली, किंतु दुर्योधनने इनके सन्धिके प्रस्तावको तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया, जिससे युद्ध अनिवार्य हो गया|
जब दोनों ओरसे युद्धकी तैयारी पूर्ण हो गयी और दोनों पक्षोंकी सेनाएँ कुरुक्षेत्रकी युद्धभूमिमें आ डटीं, तब भगवान् व्यासने सञ्जयको दिव्यदृष्टिका वरदान देते हुए धृतराष्ट्रसे कहा – ‘ये सञ्जय तुम्हें युद्धका वृत्तान्त सुनायेंगे| सम्पूर्ण युद्धक्षेत्रमें कोई ऐसी बात न होगी, जो इनसे छिपी रहे|’ उसी समयसे सञ्जय दिव्यदृष्टिसे सम्पन्न हो गये| ये वहीं बैठे-बैठे युद्धकी सारी बातें प्रत्यक्षकी भाँति जान लेते और उन्हें ज्यों-की-त्यों धृतराष्ट्रको सुना देते थे| श्रीमद्भगवद्गीताका उपदेश भी इन्होंने अर्जुनकी भाँति भगवान् के विश्वरूप और चतुर्भुजरूपके दर्शनका सौभाग्य अर्जुनके अतिरिक्त महाभाग सञ्जयको ही प्राप्त हुआ|
सञ्जयको भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान था| इन्होंने महर्षि वेदव्यास, देवी गान्धारी तथा महात्मा विदुरके सामने भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा सुनाते हुए कहा – ‘भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोकोंके एकमात्र स्वामी और साक्षात् परमेश्वर हैं| मैंने ज्ञानदृष्टिसे श्रीकृष्णको पहचाना है| बिना ज्ञानके कोई उनके वास्तविक स्वरूपको नहीं जान सकता| मैं कभी कपटका आश्रय नहीं लेता, किसी मिथ्या धर्मका आचरण नहीं करता तथा ध्यानयोगके द्वारा मेरा अन्त:करण शुद्ध हो गया है| इसीलिये मुझे भगवान् श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान हो गया है| प्रमाद, हिंसा और भोग – इन तीनोंका त्याग ही ज्ञानका वास्तविक साधन है| इन्हींके त्यागसे परम पदकी प्राप्ति सम्भव है|’ इसके बाद स्वयं भगवान् वेदव्यासने सञ्जयकी प्रशंसा करते हुए धृतराष्ट्रसे कहा – ‘सञ्जयको पुराणपुरुष भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान है| इनकी सलाहसे तुम जन्म-मरणके महान् भयसे मुक्त हो जाओगे|’
इससे सिद्ध होता है कि सञ्जय श्रीकृष्णके स्वभाव और प्रभावको यथार्थरूपसे जानते थे| इन्होंने युद्धके पूर्व ही यह घोषित कर दिया था कि ‘जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और गाण्डीवधारी अर्जुन हैं वहींपर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा दृढ़ मत है|’ स्वामिभक्त सञ्जय अन्ततक धृतराष्ट्र और गान्धारीके साथ रहे और उनके दावाग्निमें शरीर त्याग करनेके बाद हिमालयकी ओर चले गये|