पतिव्रता गान्धारी – महाभारत
संसारकी पतिव्रता देवियोंमें गान्धारीका विशेष स्थान है| ये गन्धर्वराज सुबलकी पुत्री और शकुनिकी बहन थीं| इन्होंने कौमार्यावस्थामें भगवान् शंकरकी आराधना करके उनसे सौ पुत्रोंका वरदान प्राप्त किया था|
जब इनका विवाह नेत्रहीन धृतराष्ट्रसे हुआ, तभीसे इन्होंने अपनी आँखोंपर पट्टी बाँध ली| इन्होंने सोचा कि जब हमारे पति नेत्रहीन हैं, तब मुझे भी संसारको देखनेका अधिकार नहीं है| पतिके लिये इन्द्रियसुखके त्यागका ऐसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता| इन्होंने ससुरालमें आते ही अपने श्रेष्ठ आचरणसे पति एवं उनके परिवारको मुग्ध कर दिया|
देवी गान्धारी पतिव्रता होनेके साथ अत्यन्त निर्भीक और न्यायप्रिय महिला थीं| इनके पुत्रोंने जब भरी सभामें द्रौपदीके साथ अत्याचार किया, तब इन्होंने दु:खी होकर उसका खुला विरोध किया| जब इनके पति महाराज धृतराष्ट्रने दुर्योधनकी बातोंमें आकर पाण्डवोंको दुबारा द्यूतके लिये आमन्त्रित किया, तब इन्होंने जुएका विरोध करते हुए अपने पतिदेवसे कहा – ‘स्वामी! दुर्योधन जन्म लेते ही गीदड़की तरहसे रोया था| उसी समय परम ज्ञानी विदुरजीने उसका त्याग कर देनेकी सलाह दी थी| मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुल-कलङ्क कुरुवंशका नाश करके ही छोड़ेगा| आप अपने दोषोंसे सबको विपत्तिमें मत डालिये| इन ढीठ मूर्खोंकी हाँ-में-हाँ मिलाकर इस वंशके नाशका कारण मत बनिये| कुलकलङ्क दुर्योधनको त्यागना ही श्रेयस्कर है| मैंने मोहवश उस समय विदुरकी बात नहीं मानी, उसीका यह फल है| राज्यलक्ष्मी क्रूरके हाथमें पड़कर उसीका सत्यानाश कर देती हैं| बिना विचारे काम करना आपके लिये बड़ा दु:खदायी सिद्ध होगा|’ गान्धारीकी इस सलाहमें धर्म, नीति और निष्पक्षताका अनुपम समन्वय है|
जब भगवान् श्रीकृष्ण सन्धिदूत बनकर हस्तिनापुर गये और दुर्योधनने उनके प्रस्तावको ठुकरा दिया तथा बिना युद्धके सूईके अग्रभर भी जमीन देना स्वीकार नहीं किया| इसके बाद गान्धारीने उसको समझाते हुए कहा – ‘बेटा! मेरी बात ध्यानसे सुनो| भगवान् श्रीकृष्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा विदुरजीने जो बातें तुमसे कहीं हैं, उन्हें स्वीकार करनेमें ही तुम्हारा हित है| जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्गमें मूर्ख सारथिको मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियोंको वशमें न रखा जाय तो मनुष्यका सर्वनाश हो जाता है| इन्द्रियाँ जिसके वशमें हैं, उसके पास राज्यलक्ष्मी चिरकालतक सुरक्षित रहती हैं| भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनको कोई नहीं जीत सकता| तुम श्रीकृष्णकी शरण लो| पाण्डवोंका न्यायोचित भाग तुम उन्हें दे दो और उनसे सन्धि कर लो| इसीमें दोनों पक्षोंका हित है| युद्ध करनेमें कल्याण नहीं है|’ दुष्ट दुर्योधनने गान्धारीके इस उत्तम उपदेशपर ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण महाभारतके युद्धमें कौरवपक्षका संहार हुआ|
देवी गान्धारीने कुरुक्षेत्रकी भूमिमें जाकर वहाँ महाभारतके महायुद्धका विनाशकारी परिणाम देखा| उनके सौ पुत्रोंमेंसे एक भी पुत्र शेष नहीं बचा| पाण्डव तो किसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे गान्धारीके क्रोधसे बच गये, किंतु भावीवश भगवान् श्रीकृष्णको उनके शापको शिरोधार्य करना पड़ा और यदुवंशका परस्पर कलहके कारण महाविनाश हुआ| महाराज युधिष्ठिरके राज्याभिषेकके बाद देवी गान्धारी कुछ समयतक पाण्डवोंके साथ रहीं और अन्तमें अपने पतिके साथ तपस्या करनेके लिये वनमें चली गयीं| उन्होंने अपने पतिके साथ अपने शरीरको दावान्गिमें भस्म कर डाला| गान्धारीने इस लोकमें पतिसेवा करके परलोकमें भी पतिका सान्निध्य प्राप्त किया| वे अपने नश्वर देहको छोड़कर अपने पतिके साथ ही कुबेरके लोकमें गयीं| पतिव्रता नारियोंके लिये गान्धारीका चरित्र अनुपम शिक्षाका विषय है|