महारानी द्रौपदी – महाभारत

महारानी द्रौपदी

महारानी द्रौपदीकी उत्पत्ति यज्ञकुण्डसे हुई थी| ये महराज द्रुपदकी अयोनिजा कन्या थीं| इनका शरीर कृष्णवर्णके कमलके जैसा कोमल और सुन्दर था, अत: इन्हें ‘कृष्णा’ भी कहा जाता था| इनका रूप और लावण्य अनुपम एवं अद्वितीय था|

इनके जन्मके समय आकाशवाणी हुई थी – ‘देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये एवं उन्मत्त क्षत्रियोंके संहारके लिये ही इस रमणीरत्नका जन्म हुआ है| इसके द्वारा कौरवोंको बड़ा भय होगा|’ स्वयंवरमें अर्जुनके द्वारा लक्ष्यभेद करनेपर द्रौपदी पाण्डवोंको प्राप्त हुईं| कई दैवी कारणोंसे द्रौपदी पाँचों पाण्डवोंकी पत्नी हुईं| ये पाँचों पाण्डवोंको अपने शील, स्वभाव और प्रेममय व्यवहारसे प्रसन्न रखती थीं|

जब कपटसे द्यूतमें महाराज युधिष्ठिर अपने राजपाट, धन-वैभव तथा स्वयंके साथ द्रौपदी-तकको हार गये, तब दु:शासन दुर्योधनके आदेशसे द्रौपदीको एकवस्त्रावस्थामें खींचकर भरी सभामें ले आया| सभामें रोते-रोते द्रौपदीने सभासदोंसे अपनी रक्षा के लिये प्रार्थना की| दुष्ट दु:शासन उन्हें भरी सभामें नग्न करना चाहता था| भीष्म, द्रोणने अपनी आँखें मूँद लीं, विदुर सभासे उठकर चले गये| जब द्रौपदी चारों ओरसे निराश हो गयीं, तब उन्होंने आर्तस्वरमें भगवान् श्रीकृष्णको पुकारा| ‘हे कृष्ण, हे गोविन्द! क्या तुम नहीं जानते कि मैं कौरवोंके द्वारा अपमानित हो रही हूँ| कौरवरूपी समुद्रमें डूबती हुई मुझ अबलाका उद्धार करो| कौरवोंके बीच विपन्नावस्थाको प्राप्त मुझ शरणागतकी रक्षा करो|’ भक्तके लिये भगवान् को वस्त्रावतार लेना पड़ा और दस हजार हाथियोंके बलवाला दु:शासन साड़ी खींचते-खींचते थक गया, किंतु साड़ी का अन्त नहीं मिला और द्रौपदीकी लाज बच गयी| जिसके रक्षक नन्दनन्दन भगवान् श्यामसुन्दर हों, उसका भला कोई क्या बिगाड़ सकता है!

एक बार दुर्योधनकी प्रेरणासे सरल हृदय महक्रोधी महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्योंके साथ वनमें महाराज युधिष्ठिरके पास पहुँचे| दुर्योधनने सोचा कि इतने अधिक अतिथियोंका जंगलमें धर्मराज युधिष्ठिर आतिथ्य न कर सकेंगे, फलत: उन्हें दुर्वासाकी क्रोधाग्निमें जलकर भस्म होना पड़ेगा और हमारा राज्य निष्कण्टक हो जायगा|

जंगलमें भगवान् सूर्यकी कृपासे द्रौपदीको एक बटलोई प्राप्त हुई थी, उसमें यह गुण था कि जबतक द्रौपदी भोजन न कर ले, तबतक कितने भी अतिथियोंको भोजन कराया जाय, वह पात्र अक्षय बना रहता था| दुर्योधनके कहनेपर दुर्वासा ठीक उस समय पहुँचे जब द्रौपदी सबको भोजन करानेके बाद स्वयं भी भोजन करके बर्तन मल चुकी थीं| धर्मराजने क्रोधी दुर्वासाका स्वागत किया और उन्हें शिष्योंसहित भोजनके लिये आमन्त्रित कर दिया| दुर्वासा भोजन तैयार करनेमें शीघ्रता करनेके लिये कहकर नदीमें स्नान करनेके लिये चले गये| द्रौपदीको मात्र भगवान् द्वारकेशका सहारा था| उन्होंने आर्तस्वरमें इस भयंकर विपत्तिसे त्राण पानेके लिये उन्हींको पुकारा| भक्तभयहारी भगवान् उसी क्षण द्रौपदीके समक्ष प्रकट हो गये और उन्होंने बटलोईमें लगा हुआ शाकका एक पता खाकर विश्वको तृप्त कर दिया| दुर्वासाको अपनी शिष्य मण्डलीके साथ बिना बताये पलायन करना पड़ा और पाण्डवोंकी रक्षा हुई|

महारानी द्रौपदी वनवास और राज्यकाल दोनों समय अपने पतियोंकी छाया बनकर उनके दु:ख-सुखकी संगिनी रहीं| किसीको कभी भी शिकायतका अवसर नहीं मिला| उन्होंने अपने पुत्रघाती गुरुपुत्र अश्वत्थामाको क्षमादान देकर दया और उदारताका अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया| इस प्रकार महारानी द्रौपदीका चरित्र पातिव्रत्य, दया और भगवद्भक्तिका अनुपम उदाहरण है|