धर्मराज युधिष्ठिर – महाभारत
महाराज युधिष्ठिर धैर्य, क्षमा, सत्यवादिता आदि दिव्य गुणोंके केन्द्र थे| धर्मके अंशसे उत्पन्न होनेके कारण ये धर्मके गूढ़ तत्त्वोंके व्यावहारिक व्याख्याता तथा भगवान् श्रीकृष्णके अनन्य भक्त थे|
बचपनमें ही इनके पिता महात्मा पाण्डु स्वर्गवासी हो गये, तभीसे ये धृतराष्ट्रको अपने पिताके समान मानकर उनकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करते थे| अपने सदाचार और विचारशीलताके कारण युधिष्ठिर बचपनमें ही लोकप्रिय हो गये और प्रजा इन्हें अपने भावी राजाके रूपमें देखने लगी| दुर्योधन इनकी लोकप्रियतासे जलता था और पाण्डवोंका पैतृक अधिकार छीनकर स्वयं राजा बनना चाहता था| इसलिये उसने पाण्डवोंको जलाकर मार डालनेके उद्देश्यसे वारणावतमें लाक्षागृहका निर्माण कराया| उसने अपने प्रज्ञाहीन पिताको बहलाकर कुन्तीसहित पाण्डवोंको वारणावत भेजनेका आदेश भी पारित करा लिया| अपने ताऊकी आज्ञा समझकर युधिष्ठिर अपनी माता और अपने भाइयोंके साथ वारणावत चले गये| किसी तरह विदुरकी सहायतासे पाण्डवोंके प्राण बचे| इधर दुर्योधनने हस्तिनापुरके राज्यपर अपना अधिकार कर लिया|
द्रौपदी-स्वयंवरमें पाण्डवोंकी उपस्थितिका समाचार सुनकर धृतराष्ट्रने विदुरको भेजकर उन्हें बुलवा लिया| उन्होंने युधिष्ठिरको आधा राज्य देकर खाण्डवप्रस्थमें रहनेका आदेश दिया| युधिष्ठिरने उनके आदेशको सहर्ष स्वीकार कर लिया और खाण्डवप्रस्थका नाम बदलकर इन्द्रप्रस्थ रखा तथा उसे अपनी राजधानी बनाकर विशाल राजसूययज्ञका आयोजन किया| राजसूययज्ञमें बड़े-बड़े राजाओंने आकर युधिष्ठिरको बहुमूल्य उपहार दिये और उन्हें अपना सम्राट् स्वीकार किया|
दुर्योधन पाण्डवोंके इस उत्कर्षको देखकर ईर्ष्यासे जल उठा और उसने कपट-द्यूतमें छलपूर्वक पाण्डवोंका सर्वस्व हरण कर लिया| कुलवधु द्रौपदीको नग्न करनेका गर्हित कर्म किया गया| अर्जुन और भीम-जैसे योद्धा कुरुकुलका संहार करनेके लिये तैयार बैठे थे; फिर भी धर्मराजने धर्मके नामपर सब कुछ सुन लिया और सह लिया| जिस दुर्योधनने पाण्डवोंका सर्वस्व अपहरण करके उन्हें दर-दरका भिखारी बना दिया, वही जब अपने भाइयों और कुरुकुलकी वधुओंके साथ चित्रसेन गन्धर्वके द्वारा बन्दी बना लिया गया, तब अजातशत्रु युधिष्ठिरने अपने भाइयोंको आक्रमणका आदेश देते हुए कहा – ‘आपसमें विवाद होनेपर कौरव सौ और हम पाँच भाई हैं, परंतु दूसरोंका सामना करनेके लिये तो हमें मिलकर एक सौ पाँच होना चाहिये| पुरुषसिंहो उठो और जाओ! कुलके उद्धारके लिये दुर्योधनको बलपूर्वक छुड़ाकर ले आओ|’ अपने शत्रुके साथ भी इस प्रकारका सद्व्यवहार महाराज युधिष्ठिरकी अजातशत्रुता, धर्मप्रियता और नीतिज्ञताकी सीमा है|
महाराज युधिष्ठिर निष्काम धर्मात्मा थे| एक बार इन्होंने अपने भाइयों और द्रौपदीसे कहा – ‘मैं धर्मका पालन इसलिये नहीं करता कि मुझे उसका फल मिले| फलके लिये धर्माचरण करनेवाले व्यापारी हैं, धार्मिक नहीं|’ वनमें यक्षरूपी धर्मसे इन्होंने अपने छोटे भाई नकुलको जिलानेकी प्रार्थना की| यक्षके यह पूछनेपर कि ‘तुम अर्जुन और भीम-जैसे यौद्धाओंको छोड़कर नकुलको क्यों जिलाना चाहते हो?’ युधिष्ठिरने कहा – ‘मुझे राज्यकी चिन्ता नहीं है| मैं चाहता हूँ कि मेरी कुन्ती और माद्री दोनों माताओंका एक-एक पुत्र जीवित रहे|’ युधिष्ठिरकी इस समबुद्धिपर यक्षने उनके सभी भाइयों जीवित कर दिया| शरणागत कुत्तेके लिये इन्द्रके प्रस्तावको ठुकराते हुए धर्मराजने कहा – ‘जिस स्वर्गके लिये आश्रित शरणागत धर्मका त्याग करना पड़े, मुझे उस स्वर्गकी कोई आवश्यकता नहीं है|’ सच है, धर्मकी वृद्धिके लिये महराज युधिष्ठिरके चरित्रका मनन करना चाहिये|