Homeभक्त व संतजटू तपस्वी (Jatu Tapsvi)

जटू तपस्वी (Jatu Tapsvi)

प्रेम पिआला साध संग शबद सुरति अनहद लिव लाई|
धिआनी चंद चकोर गति अंम्रित द्रिशटि ‌‌‌‌स्रिसटि वरसाइ ||

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घनहर चात्रिक मोर जयों अनहद धुनि सुनि पाइल पाई |
चरण कमल मकरंद रस सुख संपट हुइ भवर समाई |
सुख सागर विच मीन होइ गुरमुख चाल न खोज खुजाई |
अपिउ पीअन निझर झरन अजरजरण न अलख लखाई |
वीह इकीह उलंघि कै गुरसिखी गुरमुख फल खाई |
वाहिगुरु वडी वडिआई |८| 

आध्यात्मिक दुनिया में परमात्मा के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेक मार्ग अपनी-अपनी समझ के अनुसार अनेक महां पुरुषों तथा अवतारों ने बताए हैं| जिन को ज्ञान ध्यान, जप ताप आदि नाम दिए जाते हैं| पुण्य, सेवा सिमरन भी है| भारत में ज्ञान पर बहुत जोर रहा है| ज्ञान के बाद ध्यान आया, मूर्ति पूजा के रूप में तथा जप आया मंत्रों के रूप में ग्यारह हजार करोड़ बार किसी मंत्र का जाप कर लेना तथा कहना बस अन्य कुछ करने की जरूरत नहीं समझें कि रिद्धियां-सिद्धियां या करामातें आ गईं| जप का फल प्राप्त करने के बाद अहंकार हो जाता है| उस अहंकार का उपयोग जादू, टोने, मंत्र, लोगों को अपने वश करने में होता रहा| जप के साथ ही योगी लोगों का शरीर जो पंचभूतक का बना है पुरुष का सुन्दर घर| योगी समझते रहे शरीर में जो शक्ति है, उसको निर्मल किया जाए तो मन स्वयं ही काम, क्रोध, मोह की तरफ नहीं भागेगा| भाव कि शारीरिक शक्तियों को कमजोर करते थे|

भारत के योगियों तथा साधुओं की कई सम्प्रदाएं हैं जो तपस्या कर भरोसा रखती थीं| पंजाब में अनेक तपस्वी हुए हैं| उन तपस्वियों में एक जटू तपस्वी था| उसके तप की बहुत चर्चा थी| पर उसकी तपस्या ने उसे न भगवान के निकट किया था तथा न मन को शांति मिली थी|

उस तपस्वी की साखी इस तरह है कि वह करतारपुर (ब्यास) में रहता था तथा तपस्या किया करता था| उसके तप करने का यह ढंग था कि वह अपने चारों तरफ पांच धूनियां जला लेता तथा स्वयं मध्य में बैठा रहता| सर्दी होती या गर्मी वह धूना जला कर तपस्या करता रहता| उसकी तपस्या की बड़ी चर्चा थी|

करतारपुर नगर को पांचवे पातशाह ने आबाद किया था| गुरु की नगरी का नाम प्राप्त हो गया| जब जटू तपस्या करता था, तब सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी महाराज करतारपुर में विराजमान थे तथा वहां धार्मिक कार्यों के साथ सैनिक कार्य भी होते थे| नित्य शिकार खेले जाते तथा शत्रुओं से मुकाबला करने का प्रशिक्षण दिया जाता| देश की सेवा का भी मनोरथ था|

जटू तपस्वी को प्रभु ज्ञान बता कर उसको शारीरिक कष्ट से मुक्त करने के लिए सतिगुरु जी ने ध्यान किया| तपस्वी की दशा बड़ी दयनीय थी| वह व्याकुल रहता तथा अहंकार और लालच में आ गया था| उसकी मनोवृति ठीक नहीं रहती थी| ऐसी दशा में फंसा होने पर कभी-कभी गुरु घर की निंदा कर देता| उसके मन को फिर भी चैन न आता, क्योंकि शरीर दुखी रहता| पर सतिगुरु जी ऐसे दुखियों के दुःख दूर करते थे| सतिगुरु जी शिकार को जाते हुए तपस्वी के पास पहुंचे, उस समय तपस्वी धूना जला कर तप कर रहा था| उसका ध्यान कहीं ओर था, बैठा कुछ सोच रहा था|

सतिगुरु जी घोड़े पर सवार ही रहे, जटू तपस्वी की तरफ सतिगुरु जी ने कृपा दृष्टि से उसकी आंखों में आंखें डाल कर देखा| कोई चार-पांच मिनट तक देखकर गुरु साहिब जी ने उसके तप तथा भ्रम की शक्ति को खींच लिया तथा वह वचन करके कि-तपस्वी! खीझा न करो| कहो ‘सति करतार|’ साहिब जी घोड़े को एड़ी लगाकर आगे निकल गए|

सतिगुरु जी के जाने के बाद जटू तपस्वी के दिल-दिमाग में खलल पैदा हो गया| वह स्वयं ही जबरदस्ती कहता गया-तपस्वी खीझा न करो| तपस्वी खीझा न करो| कहो सति करतार, सति करतार|’

यह भी चमत्कार हुआ कि उनकी पांचों धुनियां ठण्डी हो गई| उस की हिम्मत न रही कि वह उठ कर फूंकें भी मार सके, उसने किसी को आवाज़ न दी| आसन में उठ गया, उसने कहा ‘सति करतार|’

‘सति करतार’ कहता हुआ नाचता रहा| उसकी ऐसी दशा हो गई, नाम की ऐसी अंगमी शक्ति आई कि वह सिमरन करने लग गया| वह पागलों के जैसे घूमने लगा तथा बच्चे और साधारण लोग जिन्हें आत्मिक दुनिया का ज्ञान नहीं था, वह व्यंग्य करने लगे| ‘तपस्वी खीझा न करो! तपस्वी खीझा न करो|’ पर वह क्रोध न करता, बल्कि कहता-कहो भाई! सति करतार|’ इस तरह कोई उसे पागल समझने लग पड़ा| उसको गुरु दर्शनों की लिव लग गई| वह दर्शन के लिए तड़पने लगा| उतनी देर में सतिगुरु जी भाग्यवश श्री अमृतसर जी को चले गए|

पीछे से तपस्वी की बैचेनी और बढ़ गई तथा वह ‘सति करतार’ का सिमरन करता हुआ बिल्कुल पागल हो गया| उसके इर्द-गिर्द के कपड़े फट गए तथा कभी ढंका हुआ और कभी नग्न फिरने लगा| उसकी दशा बिगड़ती गई|

उसको यह ज्ञान हो गया कि सतिगुरु जी श्री अमृतसर को चले गए हैं तो वह ब्यास से पार हो कर पीछे गया तथा अमृतसर पहुंचा|

वह शहर में तथा श्री हरिमंदिर साहिब जी के इर्द-गिर्द घूमता रहा| पर उसे सतिगुरु जी के दरबार में दाखिल होने की आज्ञा न मिली|

‘ले आओ|’ सतिगुरु जी ने एक दिन हुक्म दिया कि यह गुरमुख है| तपस्वी पहले खीझा रहता था, अब तपता है, नाम अभ्यासी हो गया है|

भाई जटू को सतिगुरु जी के दरबार में हाजिर किया गया| सतिगुरु जी के चरणों में गिर पड़ा तथा बिलख-बिलखकर विनती करने लगा – हे दाता! जैसे पहले कृपा की है अब भी दया करो! सुधबुध रहे, सिमरन करूं|’

सतिगुरु जी ने कृपा करके गुरु-मंत्र प्रदान किया, उसके मन को शांत किया तथा अंतर-आत्मा को ज्ञान कराया| उसको वस्त्र पहनाए तथा गुरु घर में सेवा पर लगाया| उनकी लिव लगी तथा सच्चा प्यार पैदा हो गया| धूनियों का ताप जो अहंकार पैदा करता था, वह समाप्त हो गया|

सतिगुरु नानक देव जी ने सिमरन तथा सिक्खी मार्ग को प्रगट करके कलयुगी जीवों को कल्याण के साधन सिर्फ नाम सिमरन, सच्चा प्यार तथा सेवा ही बताया| वैसे ही भाई गुरदास जी फरमाते हैं कि गुरु घर में प्यार का प्याला मिलता है वह भी अनहद की धुनी बजती है| वह प्यार चांद चकोर जैसा होता है| ध्यान लगा रहता है| सिक्ख को सच्चे प्यार की कृपा होती है, गुरमुखों को ऐसा सुख मिलता है, सतिगुरु की प्रशंसा है|

इसलिए हे जिज्ञासु जनो! नाम का सिमरन करो! धर्म की कमाई तथा सेवा करो| झूठे आडम्बर करके शरीर को कष्ट देने की जरूरत नहीं| सच्ची तपस्या तो नाम सिमरन है|

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