भक्त त्रिलोचन जी (Bhagat Trilochan Ji)
यह भक्त जी भी दक्षिण देश की तरफ से हुए हैं तथा भक्त नामदेव जी के गुरु-भाई वैश्य जाति से थे और ज्ञान देव जी (ज्ञानेश्वर) के शिष्य थे| उन से दीक्षा प्राप्त की थी| दक्षिण में आप की ख्याति भी भक्त नामदेव जी की तरह बहुत हुई तथा जीव कल्याण का उपदेश करते रहे| आपको बड़े जिज्ञासु भक्तों में माना गया| आपके बारे में भाई गुरदास जी इस प्रकार उच्चारण करते हैं –
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दरशन देखन नामदेव भलके उठ त्रिलोचन आवै |
भगति करनि मिल दोई जने नामदेउ हरि चलत सुनावै |
मेरी भी करि बेनती दरशन देखां जे तिस भावै |
ठाकुर जी नों पुछिओसु दर्शन किवै त्रिलोचन पावै |
हस के ठाकुर बोलिआ नामदेउ नों कहि समझावै |
हथ न आवै भेट सो तुसि त्रिलोचन मैं मुहि लावै |
हउ अधीन हां भगत दे पहुंच न हंघा भगती दावै |
होई विचोला आन मिलावै |१२|
भक्त नामदेव जी तथा त्रिलोचन जी का आपस में अटूट प्रेम था| भक्त नामदेव जी के पास केवल नाम की बरकत थी, पर त्रिलोचन जी के पास माया भी बेअंत थी| वह सिमरन करने के साथ आने-जाने वाले अतिथि भक्तों की सेवा भरपूर करते थे| भोजन खिलाते तथा वस्त्र लेकर दे दिया करते थे| एक दिन त्रिलोचन जी उठ कर नामदेव जी के दर्शन करने चले गए| दोनों भक्त मिले| दर्शन किये, वचन विलास हुए तो भक्त नामदेव जी ने भगवान का यश, उनकी कीर्ति तथा दर्शन देने के बारे में कुछ वार्ताएं सुना दीं| वार्ताओं को सुनकर भक्त त्रिलोचन जी के मन में आया की वह भी दर्शन करे| उन्होंने भक्त नामदेव जी के आगे प्रार्थना की की मुझे भी प्रभु के दर्शन हो जाएं तो जन्म सफल कर लूं|
त्रिलोचन जी के मुख से ऐसी प्रार्थना सुनकर भक्त नामदेव जी ने वचन किया – ‘उनको पूछ लेते हैं यदि प्रभु की इच्छा हुई तो जरूर दर्शन हो जाएंगे| दर्शन देने वाले पर निर्भर है|’
भाई गुरदास जी वचन करते हैं कि नामदेव जी ने विनती की| नामदेव जी जी की विनती सुन कर भगवान हंस कर बोले, पुण्य दान, भेंटे करने पर हम नहीं प्रसन्न होते| तुम्हारी भक्ति तथा प्रेम भावना पर प्रसन्न हैं| तुम्हारे कहने पर दर्शन दे देते हैं| जो भगवान का हुक्म था, नामदेव जी को कहा और वह त्रिलोचन को सुना दिया| ‘श्रद्धा भावना रख कर पुण्य दान करो, एक दिन दर्शन जरूर हो जाएंगे|’
यह सुन कर त्रिलोचन जी प्रसन्न हो गए|
त्रिलोचन जी की कोई संतान नहीं थी, केवल पति-पत्नी दोनों ही प्राणी थे| संतों का आवागमन उनके घर असीम था| इसलिए उनको तथा उनकी धर्म पत्नी को भगवान से बड़ा लगाव था और स्वयं काम करते रहते थे| उन्होंने सलाह की कि यदि कोई नौकर मिल जाए तो संतों की अच्छी सेवा हो जाया करेगी| बर्तन शीघ्र साफ न होने के कारण देरी पर कई बार संत भूखे ही चले जाते हैं, वे न जाए| नौकर रखने की सलाह पक्की हो गई|
एक दिन त्रिलोचन जी बाजार में जा रहे थे तो आप को एक गरीब-सा पुरुष मिला उसका चेहरा तंदरुस्त था, आंखों में चमक तथा तेज़ था, पर वस्त्र फटे हुए थे| उसको देख कर त्रिलोचन जी ने झिझक कर पूछा-‘क्यों भाई! तुम नौकरी करना चाहते हो?’
उसने कहा-हां! मैं नौकरी ढूंढता फिरता हूं, पर मेरी एक शर्त है, जिसे कोई नहीं मानता, इसलिए मुझे कोई नौकर नहीं रखता| यदि कोई मेरी शर्त माने तो मैं नौकरी करूंगा|
त्रिलोचन जी-‘तुम्हारी शर्त क्या है बता सकते हो?’
पुरुष-‘जी मेरी शर्त मामूली है| मैं रोटी-कपड़े के बदले नौकरी करता हूं, नकद रुपया कोई नहीं मांगता, पर घर का कोई सदस्य आपस में आस-पड़ोस में मेरी रोटी के बदले किसी से कोई बात न करे| यह बिल्कुल ही न कहा जाए कि मैं रोटी ज्यादा खाता हूं या कम, काम जो भी कहेंगे करूंगा, मैं सब काम जानता हूं| रात-दिन जागता भी रहूं तो भी कोई बात नहीं, यदि आपको यह शर्त मंजूर है तो मैं आपके घर नौकर रहने को तैयार हूं| जिस दिन मेरे खाने को टोका गया, उस दिन मैं नौकरी छोड़ दूंगा| मैं तो एक ही बात चाहता हूं घर सलाह कर लें|
भक्त त्रिलोचन जी ने उसकी शर्त मंजूर कर ली, यह जो सेवक भक्त जी के साथ चला, वास्तव में ‘हरि जी’ (भगवान) स्वयं थे| नामदेव जी के कहने पर त्रिलोचन को दर्शन देने के लिए आए थे| भगवान ने अपना नाम त्रिलोचन को ‘अन्तर्यामी’ बताया| ‘अन्तर्यामी’ घर आ गया, घर के सारे काम उसको सौंप दिये गए| पर काम सौंपने से पहले त्रिलोचन जी ने अपनी पत्नी को कहा, ‘देखो जी! इस सेवक को एक तो जुबान से बुरा शब्द नहीं कहना, दूसरा यह जितनी रोटी खाए उतनी देनी होगी, चाहे तीन-चार सेर अन्न क्यों न खाए, खाने से न टोकना, न ही किसी को बताना| जो बताएगा, जो देखेगा या टोकेगा, उसको दुःख देगा|
संत आते-जाते रहे और सेवक अन्तर्यामी आने-जाने वाले अतिथि की सेवा मन से श्रद्धापूर्वक करता रहा| संत बड़े प्रसन्न हो कर जाते, साथ ही कहते यह सेवक तो भक्त रूप है बड़ा गुरमुख है| सब इस तरह महिमा करते ही जाते, त्रिलोचन जी की प्रशंसा सारे शहर तथा बाहर होने लगी| इस तरह सेवा करते हुए एक साल बीत गया| एक साल के बाद की बात है, एक दिन त्रिलोचन जी की पत्नी एक पड़ोसन के पास जा बैठी| नारी जाति का आम स्वभाव है कि वह बातें बहुत करती हैं| कई भेद वाली बातों को गुप्त नहीं रख सकती| कई बार एक स्त्री को जबरदस्ती जिद्द करके तंग करेगी कि वह मन की बात बताए|
इस स्वभाव अनुसार त्रिलोचन की पत्नी पड़ोसन के पास बैठी थी तो पड़ोसन ने उसको पूछा, बहन! सत्य बात बताना, तुम उदास क्यों रहती हो? चाहे आयु अधिक हो गई है, फिर भी चेहरे पर लाली रहती थी| हंस-हंस कर बातें तथा वचन विलास करती थी| अब क्या हो गया? तुम्हारा रंग भी हल्दी जैसा हो रहा है, दुःख क्या है?
त्रिलोचन की भोली पत्नी को पता नहीं था कि संतों की सेवा करने वाला उनके घर स्वयं भगवान है| वह तो उसे आम मनुष्य समझती रही, अपनी तरफ से पर्दे से उस पुरुष (अन्तर्यामी) से छिप कर पड़ोसन से बातें करने लगी, पर वह अन्तर्यामी था वह तो घट घट को जानता था, त्रिलोचन जी की पत्नी पड़ोसन को कहने लगी, ‘बहन जी क्या बताऊं, एक तो दिनों-दिन बुढ़ापा आता जा रहा है, दूसरा संतों के रोज़ आने की संख्या बढ़ गई है| आटा पीस कर पकाना पड़ता है, मैं पीसती रहती हूं| तीसरा जो सेवक है न!’ बात करती-करती वह रुक गई| उसकी पड़ोसन ने कहा, ‘रुक क्यों गई? बताओ न दिल का हाल, दुःख कम होता है, कहो|’
भक्त जी की पत्नी बोली-‘बात यह है कि उन्होंने (त्रिलोचन जी) बहुत पक्का वादा किया है कि किसी से यह बात नहीं कहनी, पर मैं तुम्हें बहन समझ कर बताती हूं| तुम आगे किसी से बात न करना, वादा करती हो| बात यह है जो सेवक रखा है न, पता नहीं उसका पेट है या कि कुआं, उसका पेट भरता ही नहीं, तीन-चार सेर अन्न तो उसके लिए चाहिए, मैं तो पकाती हुई उकता गई हूं| भक्त जी उसे कुछ नहीं कहते, मैं तो बहुत परेशान हूं, ऊपर से बुढ़ापा आ रहा है| वह घर उजाड़ते जा रहे हैं| यदि पास चार पैसे न रहे तो कल क्या खाएंगे? जब नैन प्राण जवाब दे गए तो बिना पैसे के जानती हो कोई सूरत नहीं पूछता| रात-दिन सेवा करते रहते हैं|’
‘यह तो भक्त जी (त्रिलोचन जी) भूल करते हैं, ऐसे सेवक को नहीं रखना चाहिए|’ पड़ोसन ने कहा, उसे घर से निकाल दो| दूसरा सेवक रख लो| यह कौन-सी बात है|
त्रिलोचन जी की पत्नी इस तरह बातें करती तथा दुखड़े रोती हुई पड़ोसन के पास बहुत देर बैठी रही| दाल पकाने में अन्धेरा हो गया| उसका विचार था कि सेवक पका लेगा| पर सेवक अन्तर्यामी था| उसने सारी बातचीत दूर बैठे ही सुन ली| उसने जब अपनी निंदा सुनी तो उसी समय ही अपनी भूरी उठा कर घर से निकल गया| घर सूना छोड़ गया, दरवाज़े खुले थे| वह अदृश्य हो कर अपने असली रूप में आ गया| पड़ोसन के पास से उठ कर जब त्रिलोचन जी की पत्नी घर आई तो देखकर हैरान हुई कि घर के दरवाज़े खुले है, लेकिन सेवक कहीं भी नहीं था| वह घर से बाहर नहीं जाता था| उसने आवाज़ें दी, अंदर-बाहर देखा, पर कोई दिखाई न दिया| रात को त्रिलोचन जी आ गए| उन्होंने भी आ कर पूछा कि ‘अन्तर्यामी’ किधर गया? पर उनको कोई स्पष्ट और संतोषप्रद उत्तर न मिला| त्रिलोचन जी समझ गए कि उनकी पत्नी से अवश्य भूल हो गई है| ‘अन्तर्यामी’ की निंदा कर दी होगी| जिस कारण वह चला गया|
कई दिन त्रिलोचन जी उस सेवक को ढूंढते रहे, न वह मिला तथा न मिलना था| एक दिन उनको सोते हुए वाणी हुई, ‘त्रिलोचन! तुम्हारा सेवक अन्तर्यामी सचमुच अन्तर्यामी भगवान था, तुम्हें दर्शन देने आया था| पर पहचान न की, तुम्हारी पत्नी ने बात बता दी| नामदेव जी ने सिफारिश की थी|’
यह सुन कर त्रिलोचन जी तड़प उठे, बहुत पछतावा हुआ| पत्नी को कहने लगे, ‘तुम ने बहुत बुरा किया, सेवक बन कर स्वयं भगवान घर आया, पर दो सेर आटे के बदले घर से निकाल दिया| यह सब कुछ उसका है| उसकी माया उपयोग कर रहे हैं| यह तुम्हारा लालची और नारी मन प्रभु के भेद को न समझ सका, खोटे भाग्य|
त्रिलोचन जी की पत्नी यह सुन कर विलाप करने लगी कि भगवान सारी उम्र उनसे नाराज़ रहा| संतान न दी जो बुढ़ापे में सहायता करती| यदि अब नौकर रखा तो वह भी न रहा| मैं ही बुरी हूं| विधाता ने मेरे ही लेख (कर्म) बुरे लिखे हैं, मैं बदकिस्मत हूं, मेरा जीना किस काम का अगर प्रभु ही रूठ गया| भगवान, भगवान! इस तरह ऊंची ऊंची विलाप करती हुई प्रभु को बुलाने लगी| ‘मुझे संतान न दी-यदि संतान दी होती तो आज मुझ से भूल न होती – भगवान सब…..’
यह सुनकर भक्त त्रिलोचन जी ने अपनी पत्नी को समझाने का यत्न किया| वह भाव उनकी बाणी में से इस तरह मिलता है| आप फरमाते हैं|
नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी || दुक्रितु सुक्रितु थारो करमु री ||१|| रहाउ ||
संकरा मसतकि बसता सुरसरी इसनान रे ||३||कुल जन मधे मिलियो सारग पान रे ||
करम करि कलंकु|मफीटसि री ||१|| विस्व का दीपकु स्वामी ता चे रे सुआर थी ||
पंखी राइ गरुड़ ता चे बाधवा || करम करि अरुण पिंगुला री ||२||
अनिक पातिक हरता त्रिभवण नाथु री तीरथि तीरथि भ्रमता लहै न पारु री ||
करम करि कपालु मफीटसि री ||३||अंम्रित ससीध धेन लछिमी कलप तर ||
सिखरि सुनागर नदी चे नाथं || करम करि खारु मफीटसि री ||४||
दाधीले लंका गडु उपाड़ीले रावण बनु सलि बिसलि आणि तोखीले हरी ||
करम करि कछउटी मफीटसि री ||५|| पूरबलो क्रित करमु न मिटै री ||
घर गेहणि ता चे मोहि जापीअले राम चे नामं || बदतित्रिलोचन राम जी ||६||
जिसका परमार्थ-हे भाग्यवान्! ईश्वर पर दोष न लगाओ| दोष अपने कर्मों का है| हम जो अच्छे बुरे कर्म करते हैं उनका फल वैसा ही पाते हैं| चन्द्रमा शिव के माथे में है| हर रोज़ गंगा में स्नान करता है| उसी चन्द्रमा की कुल में श्री कृष्ण जी हुए हैं| पर चन्द्रमा ने इन्द्र की सहायता की जो कामुक हो कर गौतम की अर्द्धांगिनी से पाप कर बैठा, जिस कारण उसे गौतम ने श्राप दे दिया| अभी तक चन्द्रमा का कलंक नहीं मिट सका| सूरज की तरफ देखो! वह दुनिया को रौशनी देता है| दीये के समान है, अरूण रथवान है| अरूण का भाई गरुड़ है, गरूड़ को पक्षियों का राजा कहा जाता है| अरूण ने बींडे के पांव तोड़ कर लोहे की छड़ी पर मोड़ा था, जिसका परिणाम यह हुआ कि अरूण पिंगला हो गया| भगवान शिव जी की तरफ देखो, वह कई पापों को हरते हैं, लेकिन स्वयं तीर्थों पर भटकते फिरते हैं| सरस्वती पर ब्रह्मा मोहित हो गए| शिव जी ने यह पाप समझ कर ब्रह्मा का सिर काट दिया, जिस कारण शिव को ब्रह्म हत्या का दोष लगा| ब्रह्मा का सिर उनके हाथ की हथेली से चिपक गया| इसको हाथ से उतारने के लिए शिव जी को कपाल मोचन तीर्थ पर जाना पड़ा| हे भाग्यवान! सागर की तरफ देखो| कितना टेढ़ा तथा गहरा है, इसी सागर में से अमृत, चन्द्रमा, कमला, लक्ष्मी, कल्पवृक्ष, धन्वंतरी वैद्य आदि निकले, सब सागर में से मिलते हैं, यह उनका पति है| पर देख लो कर्मों का फल खारा है| इसलिए राम का सिमरन करते जाओ, जो भगवान करता है, ठीक करता है| अपने कर्मों का फल है कर्म की मेहनत जीव खाते हैं|
जै चंद को उपदेश
एक जै चंद नामक संन्यासी था, वह जाति का ब्राह्मण था| वह संन्यासी तो बन गया, पर उसकी मनोवृति ठीक न हुई| उसके पास लालच, अहंकार, ईर्ष्या तथा काम क्रोध की अग्नि से घर किया हुआ था, इन बुराईयों का अन्त न किया| वह एक दिन त्रिलोचन जी से दान लेने के लिए गया| भक्त जी ने उसका सुधार करने के लिए उसको उपदेश देना शुरू किया| भक्त जी ने बाणी द्वारा फरमाया –
अंतरु मलि निरमलु नही कीना बाहरि भेख उदासी ||
हिरदैकमलु घटि ब्रहमु न चीन्हा काहे भइआ संनिआसी ||१||
भरमे भूली रे जै चंदा || नही नही चीन्हिआ परमानंदा || रहाउ ||
घरि घरि खाइआ पिंडु बधाइआ खिंथा मुंदा माइआ ||
भूमिमसाण की भसम लगाई गुर बिनु ततु न पाइआ ||२||
काइजपहु रे काइ तपहु रे काइ बिलोवहु पानी ||
लख चउरासीहजिनहि उपाई सो सिमरहु निरबानी ||३||
काइ कमंडलुकापड़ीआ रे अठसठि काइ फिराही ||
बदति त्रिलोचनु सुनु रे प्रानी कन बिनु गाहु कि पाही ||४||
उपरोक्त शब्द का भावार्थ इस तरह है –
हे संन्यासी पुरुष, आपने संन्यास तो धारण कर लिया है, पर अपनी आत्मा को निर्मल करने का यत्न नहीं किया| बाहरी भेष है| संन्यासी तो बने पर आत्मा मलीन है| इसको निर्मल करने का यत्न नहीं किया – भाव मोह-माया वासना को त्याग नहीं सके| हे जै चंद! संन्यासी बन गए, पर कमल रूपी हृदय को ब्रह्म की रौशनी से चमकाया नहीं| भ्रम में लगे रहे तथा ब्रह्म को नहीं जाना| वचन नहीं किया| यह भला कहां का संन्यासीपन है कि घर-घर मांगते फिरे तथा शरीर को बढ़ा लिया, पेट पाल लिया| झोली में मुंदरें, सब का आसरा माया को जाना| धरती से उठा कर श्मशान की राख लगा ली, पर गुरु धारण करके ज्ञान का विचार न किया| ज्ञान ही तो जीवन है| आप का जप उस तरह है जैसे कोई सुबह पानी रिड़कता जाए तथा उसमें से कुछ न निकले| पानी रिड़कने से क्या निकलना है? अच्छा तो है उस मालिक का नाम अजपा जपा करो, क्योंकि उसने चौरासी लाख योनियों को उत्पन्न किया है| वह जगत का मालिक है| बिना वाहिगुरु के नाम सिरमन के ६८ तीर्थों पर करमंडल पकड़ कर चलते फिरना भला किधर का साधू-पन है|
भक्त त्रिलोचन जी कहते हैं-‘हे जै चंद संन्यासी! तुम्हारा तीर्थों पर घूमना इस तरह है जैसे कोई पुरुष नाड़ को पकड़ कर दानों की आशा करता है| दाने तो फल में होते हैं| नाड़ में दाने नहीं होते, इसलिए आप का संन्यास असली संन्यास नहीं| यह तो झूठा आडम्बर है|’
भक्त जी का सच्चा उपदेश सुनकर जै चंद संन्यासी के कपाट खुल गए| वह भक्त जी के चरणों में गिर का बोला, ‘हे भक्त जी! आप सत्य कह रहे हो| मैं दिल से संन्यासी नहीं बना हूं| अब मुझे ज्ञान हो गया| अपने चरणों में लगाओ और सत्य मार्ग दिखाएं |’
भक्त जी ने उस जै चंद संन्यासी को भक्ति मार्ग पर लगाया| वह दिल से संन्यासी बन कर त्यागी बना तथा नाम सिमरन से आत्मा को पवित्र करने लगा|
इस तरह भक्त त्रिलोचन जी भूले भटके जगत जीवों को उपदेश करते, हरि नाम का जाप जपाते हुए, इस संसार से लुप्त हो गए| उनके वचनों ने आज उनका नाम अमर रखा है| प्रभु की भक्ति करने वाले लोग सदा प्रभु चरणों में रहते तथा जगत के लिए प्रकाश का स्त्रोत होते हैं|