परमारथ की महिमा – कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित
परमारथ की महिमा: संत कबीर दास जी के दोहे व व्याख्या
अपने तन के काज |
परमारथ के कारने,
मोहिं न आवै लाज ||
व्याख्या: मर जाऊँ, परन्तु अपने शरीर के स्वार्थ के लिए नहीं माँगूँगा| परन्तु परमार्थ के लिए माँगने में मुझे लज्जा नहीं लगती|
दुःख में रहते दूर |
कहैं कबीर परमारथी,
दुःख – सुख सदा हजूर ||
व्याख्या: संसारी – स्वार्थी लोग सिर्फ सुख के संगी होते हैं, वे दुःख आने पर दूर हो जाते हैं| परन्तु परमार्थी लोग सुख – दुःख सब समय साथ देते हैं|
छाँह बिहूना सूल |
पीपल परमारथ भजो,
सुखसागर को मूल ||
व्याख्या: स्वार्थ में आसक्ति तो बिना छाया के सूखी लकड़ी है और सदैव संताप देने वाली है और परमार्थ तो पीपल – वृक्ष के समान छायादार सुख का समुन्द्र एवं कल्याण की जड़ है, अतः परमार्थ को अपना कर उसी रस्ते पर चलो|
कबहुँ न दीजै पीठ |
स्वारथ सेमल फूल है,
कली अपूठी पीठ ||
व्याख्या: परमार्थ सबसे उत्तम रतन है इसकी ओर कभी भी पीठ मत करो| और स्वार्थ तो सेमल फूल के समान है जो कड़वा – सुगंधहीन है, जिसकी कली कच्ची और उलटी अपनी ओर खिलती है|
परमारथ की नहिं |
कहैं कबीर परमारथी,
बिरला कोई कलि माहिं ||
व्याख्या: संसारी प्रेम – व्येवहार केवल धन के लिए हैं, परमार्थ के लिए नहीं| गुरु कबीर जी कहते हैं कि इस मतलबी युग में तो कोई विरला ही परमार्थी होगा|
बधिन घेरी गाय |
गाय बिचारी न मरी,
बधि न भूखी जाय ||
व्याख्या: जीवनरूपी दिन ढल गया और अंतिम अवस्ता रुपी संध्या आ गयी, मृत्युरूपी सिहंनि ने देहध्यासी जीवरुपी गाय को घेर लिया| अविनाशी होने से जीवरुपी गाय नहीं मरती; मृत्युरूपी सिहंनि भूखी भी नहीं जाती|
दाता जाय नरक्क |
कहैं कबीर यह साखि सुनि,
मति कोई जाव सरक्क ||
व्याख्या: वीर्य को एकदम न खर्च करने वाला सूम तो उद्धार पाता है, और वीर्य का दान करने वाला दाता नरक में जाता है| इस साखी का अर्थ ठीक से सुनो – समझो, विषय में मत पतित होओ|
बरसन लगा अंगार |
उठि कबीरा धाह दै,
दाझत है संसार ||
व्याख्या: अज्ञान की बदरी ने जीव को घेर लिया, और काम – कल्पना रुपी अंगार बरसने लगा| ऐ जीवों! चिल्लाकर रोते हुआ पुकार करते रहो कि “संसार जल रहा है “|
मेवा बिलमा जाय |
बावन चन्दन धर किया,
भूति गया बनराय ||
व्याख्या: मनुष्य को ज्ञान होने पर – मन भँवरा विषय बाग लो त्यागकर, सतगुणरुपी मेवे के बाग में जाकर रम गया| स्वरुप – ज्ञानरुपी छोटे चन्दन – वृक्ष में स्थित किया और विस्तृत जगत – जंगल को भूल गया|
खपरा फूटम फूट |
योगी था सो रमि गया,
आसन रहि भभूत ||
व्याख्या: काल कि आग उठी और शरीर रुपी झोली जल गई, और खोपड़ी हड्डीरुपी खपड़े टूट – फूट गये| जीव योगी था वह रम गया, आसन, चिता पर केवल राख पड़ी है|