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मन की महिमा – कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित

मन की महिमा

मन की महिमा: संत कबीर दास जी के दोहे व व्याख्या

1 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
कबीर मन तो एक है,
भावै तहाँ लगाव |

भावै गुरु की भक्ति करू,
भावै विषय कमाव ||

व्याख्या: गुरु कबीर जी कहते हैं कि मन तो एक ही है, जहाँ अच्छा लगे वहाँ लगाओ| चाहे गुरु की भक्ति करो, चाहे विषय विकार कमाओ|

2 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
कबीर मनहिं गयन्द है,
अंकुश दै दै राखु |

विष की बेली परिहारो,
अमृत का फल चाखू ||

व्याख्या: मन मस्ताना हाथी है, इसे ज्ञान अंकुश दे – देकर अपने वश में रखो, और विषय – विष – लता को त्यागकर स्वरुप – ज्ञानामृत का शान्ति फल चखो|

3 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
मन के मते न चलिये,
मन के मते अनेक |

जो मन पर असवार है,
सो साधु कोई एक ||

व्याख्या: मन के मत में न चलो, क्योंकि मन के अनेको मत हैं| जो मन को सदैव अपने अधीन रखता है, वह साधु कोई विरला ही होता है|

4 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
मन के मारे बन गये,
बन तजि बस्ती माहिं |

कहैं कबीर क्या कीजिये,
यह मन ठहरै नाहिं ||

व्याख्या: मन की चंचलता को रोकने के लिए वन में गये, वहाँ जब मन शांत नहीं हुआ तो फिर से बस्ती में आगये| गुर कबीर जी कहते हैं कि जब तक मन शांत नहीं होयेगा, तब तक तुम क्या आत्म – कल्याण करोगे|

5 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
मन को मारूँ पटकि के,
टूक टूक है जाय |

विष कि क्यारी बोय के,
लुनता क्यों पछिताय ||

व्याख्या: जी चाहता है कि मन को पटक कर ऐसा मारूँ, कि वह चकनाचूर हों जाये| विष की क्यारी बोकर, अब उसे भोगने में क्यों पश्चाताप करता है?

6 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
मन दाता मन लालची,
मन राजा मन रंक |

जो यह मनगुरु सों मिलै,
तो गुरु मिलै निसंक ||

व्याख्या: यह मन ही शुद्धि – अशुद्धि भेद से दाता – लालची, उदार – कंजूस बनता है| यदि यह मन निष्कपट होकर गुरु से मिले, तो उसे निसंदेह गुरु पद मिल जाय|

7 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
मनुवा तो पंछी भया,
उड़ि के चला अकास |

ऊपर ही ते गिरि पड़ा,
मन माया के पास ||

व्याख्या: यह मन तो पक्षी होकर भावना रुपी आकाश में उड़ चला, ऊपर पहुँच जाने पर भी यह मन, पुनः नीचे आकर माया के निकट गिर पड़ा|

8 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
मन पंछी तब लग उड़ै,
विषय वासना माहिं |

ज्ञान बाज के झपट में,
तब लगि आवै नाहिं ||

व्याख्या: यह मन रुपी पक्षी विषय – वासनाओं में तभी तक उड़ता है, जब तक ज्ञानरूपी बाज के चंगुल में नहीं आता; अर्थार्त ज्ञान प्राप्त हों जाने पर मन विषयों की तरफ नहीं जाता|

9 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
मनवा तो फूला फिरै,
कहै जो करूँ धरम |

कोटि करम सिर पै चढ़े,
चेति न देखे मरम ||

व्याख्या: मन फूला – फूला फिरता है कि में धर्म करता हुँ| करोडों कर्म – जाल इसके सिर पर चढ़े हैं, सावधान होकर अपनी करनी का रहस्य नहीं देखता|

10 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
मन की घाली हुँ गयी,
मन की घालि जोऊँ |

सँग जो परी कुसंग के,
हटै हाट बिकाऊँ ||

व्याख्या: मन के द्वारा पतित होके पहले चौरासी में भ्रमा हूँ और मन के द्वारा भ्रम में पड़कर अब भी भ्रम रहा हूँ| कुसंगी मन – इन्द्रियों की संगत में पड़कर, चौरासी बाज़ार में बिक रहा हूँ|

11 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
महमंता मन मारि ले,
घट ही माहीं घेर |

जबही चालै पीठ दे,
आँकुस दै दै फेर ||

व्याख्या: अन्तः करण ही में घेर – घेरकर उन्मत्त मन को मार लो| जब भी भागकर चले, तभी ज्ञान अंकुश दे – देकर फेर लो|