वाह-वाह रमज़ सजण दी – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
वाह-वाह रमज़ सजण दी होर| टेक|
कोठे चढ़कर देवां होका,
इश्क़ विहाजो कोई न लोकां,
इस दा मूल न खाणा धोखा,
जंगल बस्ती मिले न ठौर|
दे दीदार होया जद राही,
अचनचेत प्यी गल विच फाही,
उण्हडी कीती बेपरवाही,
मैनूं मिलिया ठग लाहौर|
आशिक़ फिरदे चुप-चपाते,
जैसे मरुत सदा मदमाते,
दामे जुल्फ़ दे अन्दर फाते,
ओत्थे चल्लै वस्स न ज़ोर|
बुल्ल्हिआ शौह नूं कोई न देखे,
जो देखे सो किसे न लेखे,
उसदा रंग न रूप न रेख ए,
ओही होवे होके चोर|
वाह-वाह सजन का रहस्य
सजन (परमात्मा) का रहस्य अनोखा है| क्या कमाल है|
प्रेम का रोग ऐसा विषम और उद्दाम है कि उसके वश में आकर न जाने कितने कष्ट होते हैं, इसलिए बुल्लेशाह कहते हैं कि कोठे पर चढ़कर सभी को उच्च स्वर में सावधान कर रहा हूं कि लोगों, इश्क़ का व्यापार भूलकर भी न करना| प्रेम का धोखा कभी न खाना| क्योंकि प्रेमी के लिए जंगल या बस्ती में, कहीं भी ठौर नहीं|
दर्शन देकर जब प्रेमी चल दिया, तो महसूस हुआ कि गले में फन्दा पड़ गया है| उसने बहुत बेपरवाही दिखाई| ऐसे लगा कि जैसे किसी लाहौरी ठग ने ठग लिया हो|
आशिक़ लोग सर्वथा मौन रहकर प्रेम में दीवाने हुए भटकते रहते हैं, जैसे मस्त हों या मदमत्त हों| उनका मन प्रिय के केशपाश में फंसा रहता है| वहां किसी का वश नहीं चलता, किसी का ज़ोर काम नहीं आता|
बुल्लेशाह कहते हैं कि उस पति-परमेश्वर को कोई देख नहीं सकता, जो कुछ जिसे हम देखते हैं, वह किसी काम का नहीं| लेकिन एक मुश्किल भी सामने आती है कि प्रिय का न तो रूप है, न रंग है और न देखा है| अदृश्य होने पर भी सभी जगह वही है|