तांघ माही दी जली आं – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
तांघ माही दी जली आं
नित काग उडावां खली आं| टेक|
अद्धी रात लटकदे तारे,
इक लटके, इक लटकण हारे,
मैं उठ आई, नदी किनारे,
पार लंघण नूं खली आं|
नैं चन्दन दे शोर किनारे,
घुम्मण घेरां – ते ठाठां मारे,
डुब डुब मोए तारू सारे,
शोर करां तां मैं झल्ली आं|
मैं मनतारू सार की जाणां,
वज्झ, चप्पा, ना, तुला पुराना,
घुम्मण घेर ना टांघ टिकाणा,
रो रो छाटां तली आं|
पार चनाओ जंगल बेले,
ओत्थे ख़ूनी शेर बघेले,
झब रब मैनूं माही मेले,
एस फिकर विच गली आं|
बुल्ल्हा शौह मेरे घर आवे,
हार शंगार मेरे मन भावे,
मुंह मुकट मत्थे तिलक लगावे,
जे वेखे तां भली आं|
प्रिय की चाह में मैं जल रही हूं
प्रभु प्रियतम की विरह वेदना का भावनापूर्ण चित्रण करते हुए साईं लिखते हैं कि मैं प्रिय की चाह में जल रही हूं और उसकी बाट जोहती हुई काग उड़ा रही हूं|
आधी रात का समय है, तारे लटक रहे हैं, कुछेक लटक रहे हैं और कुछेक लटकने शेष हैं| इस ब्राह्म बेला में मैं उठकर नदी के किनारे आ गई हूं, और नदी के पार जाने की प्रतीक्षा में खड़ी हूं|
इस चन्दन नदी (प्रेम नदी) के किनारे बहुत शोर है, नदी की लहरें ठाठें मार रही हैं, भंवर भी पड़ रहे हैं| जो तैर सकते थे, वे भी नदी में डूब मरे| अब मैं पार जाने के लिए चीख़ने-चिल्लाने लगूं, तो पगली ही समझी जाउंगी|
मुझे तैरना नहीं आता, इस संसार नदी का भेद भी मैं नहीं जानती| मेरे पास न बांस है, न चप्पू| मेरी नाव भी पुरानी है| नदी में विकराल भंवर हैं, पैर टिकाने योग्य कोई स्थान भी नहीं| ऐसी अवस्था में मैं रो-रोकर हाथ मल रही हूं|
चनाब नदी के पार जंगल हैं, बेले हैं, वहां ख़ूनी शेर हैं और बाघ भी हैं| किसी प्रकार मेरा प्रिय मुझे अविलम्ब मिल जाए, बस इसी चिन्ता में घुली जा रही हूं|
बुल्लेशाह कहते हैं कि यदि प्रिय पति मेरे घर आ जाए, तो हार पहनना और श्रृंगार करना मुझे अच्छा लगने लगे| यदि वह सिर पर मुकुट रख दे, माथे पर तिलक लगा दे और वह मुझे नज़र भरकर देख ले, तो मैं भी भली-सी हो जाऊं|