‘रांझा-रांझा’ करदी – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
‘रांझा-रांझा’ करदी हुण मैं आपे रांझा होई| टेक|
सद्दो मैनूं धीरो रांझा हीर न आखो कोई|
रांझा मैं विच, मैं रांझे विच ग़ैर ख़िआल न कोई,
मैं नाही ओह आप है अपणी आप करे दिलजोई|
जो कुझ साडे अन्दर वस्से ज़ात असाडी सोई,
जिस दे नाल मैं न्योंह लगाया ओही जैसी होई|
चिट्टी चादर लाह सुट कुड़िये, पहन फ़क़ीरां दी लोई,
चिट्टी चादर दाग़ लगेसी, लोई दाग़ न कोई|
तख्त हज़ारे लै चल बुल्लिहआ, सयाली मिले न ढोई,
रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई|
रांझा-रांझा कहती
सद्गुरु (मुर्शिद) परमात्मा-स्वरूप होता है, इसलिए मुर्शिद से अभेदता परमात्मा की अभेदता में बदल जाती है| इस अभेदता में शिष्य अपना अस्तित्व ही भूल जाता है| सद्गुरु की आत्मा के रंग में रंग जाने की अवस्था का वर्णन इस काफ़ी में करते हुए कहा गया है कि ‘रांझा-रांझा’ कहती-कहती मैं स्वयं ही रांझा हो गई हूं| अब मुझे सब कोई ‘रांझा’ के नाम से पुकारो| मुझे हीर न कहो|
अब तो एकात्म-अभेद की स्थिति यह है कि रांझा मेरे अन्दर है, मैं रांझे के अन्दर हूं, और हम एक-दूसरे से अलग नहीं हैं| अब मैं तो रह ही नहीं गई जो कुछ भी है, वह स्वयं ही है और आत्म-आनन्द की तुष्टि के लिए वही अपनी दिलजोई स्वयं करता है|
जो हमारे अन्दर बस रहा है, अब तो वही हमारी ज़ात है| अब तो हालत यह है कि जिसके साथ हमने प्रेम किया है, हम उसी जैसे हो गए हैं|
अरी लड़की, उतार फेंक यह सफ़ेद चादर और पहन ले फ़कीरों की लोई|सफ़ेद चादर में तो दाग़ लग जाएगा, लेकिन फ़क़ीरी लोई में कोई दाग़ नहीं लगता|
बुल्लेशाह कहते हैं कि हमें तख्त हज़ारे1 ले चलो, स्याल2 में हमारा ठिकाना नहीं है, क्योंकि ‘रांझा-रांझा’ कहती-कहती, मैं स्वयं रांझा हो गई हूं|