पांधिया हो – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
झब सुख दा सुनेहुड़ा ल्यावीं वे पांधिया हो| टेक|
मैं दुबड़ी मैं कुबड़ी होई आं,
मेरे दुखड़े सब तबलावीं वे पांधिया हो|
“खुल्ली लिट गल, ह्त्त्थ परांदा,
एक कहिंदिआं न शर्मावीं वे पांधिया हो|
यारां लिख किताबत भेजी,
किसे गोशे बह समझावीं वे पांधिया हो|
बुल्ल्हा शौह दियां मुड़न मुहारां,
लै पतियां तूं झब धावीं वे पांधिया हो|
हे मुसाफ़िर
विरहिणी अपनी दीन दशा किसे बताए, वह प्रिय मिलन के अभाव में उसके सन्देश की ही प्रतीक्षा करती है इसलिए वह मुसाफ़िर से अनुरोध करती है कि फ़ौरन सुख का सन्देशा लेकर आना|
विरह में गलते-गलते मैं दुबली हो गई हूं,कुबड़ी हो गई हूं| हे पथिक, तू मेरे सभी दुख उसे बता देना| मेरी लटें खुली हुई गले में पड़ी हैं और वेणी हाथों में लिये हुए हूं| मेरी यह अवस्था उसे बताने में संकोच नहीं करना, मुसाफ़िर|
यदि करुणा करके मेरा प्रिय तुम्हारे हाथों कोई पत्र स्वयं लिखकर भेजे, तो एकान्त में बैठकर चुपके से पढ़ लेना और मुझे समझा देना, हे मुसाफ़िर !
बुल्ला कहता है कि प्रिय पति लौटकर चला आए, इसलिए तुम पत्र लेकर अविलम्ब दौड़ लेना, मुसाफ़िर|